साधो दरस-परस सब छूटे
सूख गई पन्नों की स्याही
संवादों के रस छूटे
साधो! दरस परस सब छूटे।
मृत अतीत की नई व्याख्या
पढ़ना सुनना है
शेष विकल्प नहीं अब कोई
फिर भी चुनना है
रातें और संध्याएँ छूटीं
अब कुनकुने दिवस छूटे
साधो!...
नहीं निरापद हैं यात्राएँ
उठते नहीं कदम
रोज-रोज सपनों का मरना
देख रहे हैं हम
हाथों से उड़ गए कबूतर
कौन बताए कस छूटे
साधो! ...
आदमकद हो गए आइने
चेहरे बौने हैं
नोन, राई, अक्षत,सिंदूर के
जादू-टोने के
लहलहाई अपयश की फसलें
जनम-जनम के यश छूटे
साधो! ...
-शिवकुमार अर्चन