September 19, 2023

साधो दरस परस सब छूटे

साधो दरस-परस सब छूटे 
सूख गई पन्नों की स्याही 
संवादों के रस छूटे
साधो! दरस परस सब छूटे।

मृत अतीत की नई व्याख्या 
पढ़ना सुनना है
शेष विकल्प नहीं अब कोई 
फिर भी चुनना है
रातें और संध्याएँ छूटीं 
अब कुनकुने दिवस छूटे 
साधो!...

नहीं निरापद हैं यात्राएँ 
उठते नहीं कदम
रोज-रोज सपनों का मरना
देख रहे हैं हम
हाथों से उड़ गए कबूतर 
कौन बताए कस छूटे
साधो! ...

आदमकद हो गए आइने
चेहरे बौने हैं
नोन, राई, अक्षत,सिंदूर के
जादू-टोने के
लहलहाई अपयश की फसलें 
जनम-जनम के यश छूटे 
साधो! ...
     
-शिवकुमार अर्चन

September 12, 2023

अभी न होगा मेरा अन्त

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस
लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत
सहर्ष सींच दूँगा मैं
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
हैं मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

मेरे जीवन का यह है
जब प्रथम चरण
इसमें कहाँ मृत्यु ?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे
सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर
बहता रे, बालक-मन
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु
दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त

-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

September 6, 2023

हम उदास हैं और नदी में आग लगी है

 हम उदास हैं
और नदी में आग लगी है
कैसा है दिन ! 
 
अंधे सपनों का आश्वासन
हमें मिला है
नदी-किनारे फिर
ज़हरीला फूल खिला है
दिन-भर सोई
आँख बावरी रात जगी है
कैसा है दिन! 

छली हवाओं ने
जंगल में पतझर बाँटे
सीने में चुभ रहे
सैकड़ों पिछले काँटे
 बस्ती-बस्ती
शाहों की चल रही ठगी है
कैसा है दिन! 

आदमक़द कारों से निकले
चौपट बौने
सहमे घूम रहे हैं
जंगल में मृगछौने
धुनें पराई
हम सबको लग रहीं सगी हैं
कैसा है दिन  

-कुमार रवीन्द्र

September 5, 2023

राजा मूँछ मरोड़ रहा है

                        शिक्षक दिवस पर हार्दिक सुभकामनाएँ


एक आदर्श सिक्षक अपने छात्रों को यह सिखाता है कि वे अपने आप को समझें, अपने आत्मविश्वास को जगाएँ, अन्याय और अत्याचार का विरोध करने का साहस रखें।... जब व्यवस्था मूँछें मरोड़ने लगती है तो जन-साधारण गोलबंद होने लगते हैं... और फिर जनता दिखा देती है कि वास्तव में असली ताकत मूँछों में नहीं... बल्कि उसके साथ है।... ‘वाणी प्रकाशन’ से हाल ही में प्रकाशित मेरे नवगीत-संग्रह  "इतना भी आसान कहाँ है" से एक नवगीत-
                                                                                -डा. जगदीश व्योम

राजा मूँछ मरोड़ रहा है

राजा मूँछ मरोड़ रहा है
सिसक रही हिरनी

बड़े-बड़े सींगों वाला मृग
राजा ने मारा
किसकी यहाँ मजाल
कहे राजा को हत्यारा
मुर्दानी छायी जंगल में
सब चुपचाप खड़े
सोच रहे सब यही कि
आखिर आगे कौन बड़े
घूम रहा आक्रोश वृत्त में
ज्यों घूमे घिरनी
सिसक रही...

एक कहीं से स्वर उभरा
मुँह सबने उचकाये
दबे पड़े साहस के सहसा
पंख उभर आये
मन ही मन संकल्प हो गए
आगे बढ़ने के
जंगल के अत्याचारी से 
जमकर लड़ने के
पल में बदली हवा
मुट्ठियाँ सबकी दिखीं तनी
सिसक रही... 

रानी तू कह दे राजा से
परजा जान गयी
अब अपनी अकूत ताकत 
परजा पहचान गयी
मचल गयी जिस दिन परजा
सिंहासन डोलेगा
शोषक की औकात कहाँ 
कुछ आकर बोलेगा
उठो! उठो! सब उठो!
उठेगी पूरी विकट वनी
सिसक रही हिरनी।

-डा० जगदीश व्योम

September 4, 2023

फिर कुण्डी खटकी है

फिर कुण्डी खटकी है शुभदे
देख नया दुख आया होगा
खुद चल कर आया होगा/या
अपनों ने पहुंचाया होगा.

सबके हिस्से में से,थोड़ी-थोड़ी
रोटी और घटाले
दाल जरा सी है तो क्या है
थोड़ा पानी और बढ़ा ले
भूख उसे लग आई होगी
पता नहीं कब खाया होगा.

इतने जब पलते आए हैं
एक और भी पल जायेगा
खुश हो पगली,हमको भी इक
नया सहारा मिल जाएगा
दुख ही तो ऐसा साथी है
जो न कभी पराया होगा.

ये बेचारे कहां ठहर पाते हैं
सूरज वालों के घर
इनकी गुजर-बसर होती है
हम जैसे कंगालों के दर
पूछ देख ले किसी हवेली ने
दुत्कार भगाया होगा?

-प्रदीप दुबे

September 2, 2023

सुनो सभासद

सुनो सभासद
हम केवल
विलाप सुनते हैं
तुम कैसे सुनते हो अनहद ! 

पहरा बैसे
बहुत कड़ा है
देश किन्तु अवसन्न पड़ा है
खत्म नहीं
हो पायी अब तक
मन्दिर से मुर्दों की आमद
सूनो सभासद.. .

आवाजों से
बचती जाए
कानों में है रुई लगाए
दिन-पर-दिन है
बहरी होती जाती
यह बड़-बोली संसद
सूनो सभासद.. .

बौने शब्दों के
आश्वासन
और दुःखी कर जाते हैं मन
उतना छोटा
काम कर रहा
जिसका है जितना ऊँचा कद
सूनो सभासद.. .      

-माहेश्वर तिवारी

August 31, 2023

कुछ न मिला जब

कुछ न मिला जब 
धनुर्धरों से
बंशी वारे से 
हार-हूर कर माँग रहे हैं
भील-भिलारे से 

ला चकमक तो दे
चिंतन में आग लगाना है
थोड़ी सी किलकारी दे
बच्चे बहलाना है
कैसे डरे डरे बैठे हैं
अक्षर कारे से 
कुछ न मिला जब... 

हम पोशाकें पहन
पिघलते रहते रखे-रखे
तूने तन-मन कैसे साधा
नंग-मनंग सखे
हमको भी चंगा कर
गंडा, बूटी, झारे से 
कुछ न मिला जब... 

हम कवि हैं
चकोरमुख से अंगार छीनते हैं
बैठे-ठाले शब्दकोश के
जुएँ बीनते हैं
मिले तिलक छापे
गुरुओं के पाँव पखारे से 
कुछ न मिला जब... 

एक बददुआ-सी है मन में
कह दें, तो बक दूँ,
एक सेर महुआ के बदले
गोरी पुस्तक दूँ,
हमें मिला सो तू भी पा ले
ज्ञान उजारे से 
कुछ न मिला जब... 

-महेश अनघ

August 17, 2023

तू ने भी क्या निगाह डाली री मंगले !

तू ने भी क्या निगाह डाली
री मंगले ! 

मावस है स्वर्ण-पंख वाली
करधनियां पहन लीं मुंडेरों ने
आले ताबीज पहन आये
खड़े हैं कतार में बरामदे
सोने की कण्ठियां सजाये
मिट्टी ने आग उठाकर माथे
बिन्दिया सुहाग की बना ली
री मंगले! 

मावस है स्वर्ण-पंख वाली
सरसरा गयीं देहरी-द्वार पर
चकरी-फुलझड़ियों की पायलें
बच्चों ने छतों-छतों दाग दीं
उजले आनन्द की मिसाइलें
तानता फिरे बचपन हर तरफ़
नन्हीं सी चटचटी दुनाली
री मंगले !

मावस है स्वर्ण-पंख वाली
द्वार-द्वार डाकिये गिरा गये
अक्षत-रोली-स्वस्तिक भावना
सारी नाराज़ियां शहरबदर
फोन-फोन खनकी शुभ कामना
उत्तर से दक्षिण सोनल-सोनल
झिलमिल रामेश्वरम्-मनाली
री मंगले !
मावस है स्वर्ण-पंख वाली
   
-रमेश यादव

August 16, 2023

कहो रामजी, कब आए हो

कहो रामजी, कब आए हो

अपना घर दालान छोड़कर
पोखर-पान-मखान छोड़कर
छानी पर लौकी की लतरें
कोशी-कूल कमान छोड़कर
नए-नए से टुसियाए हो
कहो रामजी …

गाछी-बिरछी को सूना कर
जौ-जवार का दुख दूनाकर
सपनों का शुभ-लाभ जोड़ते
पोथी-पतरा को सगुनाकर
नयी हवा से बतियाए हो
कहो रामजी …

वहीं नहीं अयोध्या केवल
कुछ भी नहीं यहाँ है समतल
दिन पर दिन उगते रहते हैं
आँखों में मन में सौ जंगल
किस-किस को तुम पतियाए हो
कहो रामजी …

जाओगे तो जान एक दिन
बाजारों के गान एक दिन
फिर-फिर लौटोगे लहरों से
इस इजोत के भाव हैं मलिन
अभी सुबह से सँझियाए हो
कहो रामजी …

-शांति सुमन

August 15, 2023

पन्द्रह अगस्त

                    (पन्द्रह अगस्त 1947 की रात को लिखा गया यह ऐतिहासिक गीत)


आज जीत की रात
पहरुए ! सावधान रहना
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना

प्रथम चरण है नए स्वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जनमंथन से उठ आई
पहली रत्न-हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन-मुक्ता-डोर
क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर
ले युग की पतवार
बने अम्बुधि समान रहना
पहरुए ! सावधान रहना...

विषम शृंखलाएँ टूटी हैं
खुली समस्त दिशाएँ
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग-बंदिनी हवाएँ
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गईं
यह सिमटी सीमाएँ
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएँ
उठता है तूफ़ान, इन्दु ! तुम
दीप्तिमान रहना
पहरुए ! सावधान रहना...

ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी
छायाओं का डर है
शोषण से है मृत समाज
कमज़ोर हमारा घर है
किन्तु आ रही नई ज़िन्दगी
यह विश्वास अमर है
जन-गंगा में ज्वार
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरुए ! सावधान रहना
पहरुए ! सावधान रहना...

-गिरिजा कुमार माथुर

घर की याद

तपी सड़क पर, 
पाँव जला लेते जब माहेश्वर,
याद बहुत आता है, 
ठंडी अमराई-सा घर

घर, जिसमें बाबू रहते थे, 
अम्मा रहती थीं 
नानी, राजा-रानी बुनी, 
कहानी कहती थीं
घर, जिसमें चूल्हे पर पकती 
दाल मँहकती थी 
नाउन, महरिन चाची की, 
कनबतियाँ चलती थीं 
सम्बन्धों की सूनी आँखों में, 
भर आता है, 
प्यार, दुलार भरे भइया-सा, 
भौजाई-सा घर 
याद बहुत आता है... 

आते थे मुजीमपुर से, 
बाबा झोला डाले 
कोनों में थे, चच्चा के 
बीड़ी वाले आले 
अपनेपन की धन-दौलत, 
बँटवारे दुख-सुख के 
बन्द बरोठों में पसरे पल, 
चैन शान्ति वाले 
हार्न, सायरन, बन्दूकों, 
विस्फोटों में रह-रह 
कानों में बजता है, 
मंगल शहनाई-सा घर 
याद बहुत आता है... 

दादी देती थीं गुड़-पट्टी, 
लड्डू लइया के 
भुनसारे तक चलते थे, 
मीठे जस मइया के 
आँगन भर थी धूप शिशिर को, 
छपरी भादों को 
तपे जेठ में सुख थे, 
नीम तले चरपइया के 
कोल्डड्रिंक, कॉफ़ी, रम, 
व्हिस्की के कडुवेपन में 
बसा स्वाद में अब तक, 
मीठी ठंडाई-सा घर 
याद बहुत आता है, 
ठंडी अमराई-सा घर। 

-डॉ० विनोद निगम

August 12, 2023

बाँध लिये अँजुरी में

बाँध लिये अँजुरी में-
जूही के फूल

मधुर गन्ध,
मन की हर एक गली महक गयी
सुखद परस,
रग-रग में चिनगी-सी दहक गयी
रोम-रोम उग आये-
साधों के शूल।

जोन्हा का जादू
जिन पंखुरियों था फैला,
छू गन्दे हाथों -
मैंने उन्हें किया मैला,
हाथ काट लो-
मेरे...
सजा है कबूल।

आह !
हो गयी मुझसे 
एक बड़ी भूल
अँजुरी में बाँध लिये 
जूही के फूल।

-रवीन्द्र भ्रमर
(पाँच जोड़ बाँसुरी से)

जनता का गीत

तुम अँग्रेजी बुल-डॉग
और हम
पन्नी-खाती गायें

चरण चाट कर, पूँछ हिलाकर
तुम-
महलों में सोते
हम दर-दर अपनी लाशें
अपने
कंधों पर ढोते
तुम उड़ो हवा के संग
और हम
डग-डग डपटे जायें

चाहे जिस पर भौंको
काटो,
दौड़ाओ, गुर्राओ
जहाँ मन करे-
छीनो, झपटो, लूटो,
मारो, खाओ.
तुम टूटो बन कर मौत
और हम
भागें दायें- बायें

संविधान, कानून, कोर्ट
सब फेल
तुम्हारे आगे
करते तुम हो, लेकिन
हरदम
भरते हमीं अभागे
तुम खेलो अपने खेल
और हम
लाठी- गोली खायें

-जय चक्रवर्ती

August 4, 2023

चक्की पर गेहूँ लिए खड़ा

चक्की पर गेंहूँ लिए खड़ा
मैं सोच रहा उखड़ा-उखड़ा
क्यों दो पाटों वाली साखी
बाबा कबीर को रुला गई

लेखनी मिली थी गीतव्रता
प्रार्थना-पत्र लिखते बीती
जर्जर उदासियों के कपड़े
थक गई हँसी सीती-सीती
हर चाह देर में सोकर भी
दिन से पहले कुलमुला गई

कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी
ज़िद करती है गुब्बारों की
यत्नों से कई गुनी ऊँची
डाली है लाल अनारों की
प्रत्येक किरण पल भर उजला
काले कम्बल में सुला गई

गीतों की जन्म-कुंडली में
संभावित थी ये अनहोनी
मोमिया-मूर्ति को पैदल ही
मरुथल की दोपहरी ढोनी
खण्डित भी जाना पड़ा वहाँ
जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।

-भारत भूषण

August 3, 2023

पारिजात के फूल

सारी रात झरे आँगन में
पारिजात के फूल

महके प्राण-प्रणव, जागे हैं
अनगिन सुप्त शिवाले
कई अबूझी रही सुरंगें
फैले भोर उजाले
दीप-दान करती सुहागिनें
द्वार नदी के कूल

वन-प्रांतर में मृग-शावक-दल
भरने लगे कुलाँचें
बिना मेघ, नभ के जादू से
मन-मयूर भी नाचे
झूम-झूम कर पेड़ों ने, है
झाडी़ लिपटी धूल

ले सुदूर से आये पाखी
मनभावन संदेशे
देह-देह झंकृत वीणा-सी
पुलकन रेशे-रेशे
दूब गलीचे बिछे, हटे हैं
यात्रा-पथ के शूल

-शशिकांत गीते

नदी का बहना मुझमें हो

मेरी कोशिश है
कि नदी का बहना मुझमें हो

तट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तने हों
मीड़-मूर्च्छनाओं का
उठना-गिरना मुझ में हो

जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये ख़ाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी
मच्छ, मगर, घड़ियाल
सभी का रहना मुझमें हो

मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें
ले जायें पानी ऊपर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझ में हो

-शिवबहादुर सिंह भदौरिया

August 2, 2023

पाँच जोड़ बाँसुरी

बासंती रात के निर्मल
पल आखिरी
बेसुध पल आखिरी,
विह्वल पल आखिरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

वंशी-स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो, लेकिन
आधे अँचरे पर पिया सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
बासंती रात के निर्मल
पल आखिरी
बेसुध पल आखिरी
विह्वल पल आखिरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

-ठाकुर प्रसाद सिंह

(पाँच जोड़ बाँसुरी से)

हवा आयी गंध आयी

हवा आयी
गंध आयी
गीत भी आये
पर तुम्हारे पाँव
देहरी पर नहीं आये

अब गुलाबी होंठ से
जो प्यास उठती है
वह कंटीली डालियों पर
सांस भरती है
नील नभ पर
अश्रु–सिंचित
फूल उग आये
पर तुम्हारे पाँव...

तितलियों की
धड़कने
चुभती लताओं पर
डोलती चिनगारियाँ
काली घटाओं पर
इन्द्रधनु–सा
झील में
कोई उतर आये
पर तुम्हारे पाँव...

झर रहे हैं चुप्पियों की
आँख से सपने
फिर हँसी के पेड़ की
छाया लगी डसने
शब्द आँखों से
निचुड़ते
आग नहलाये
पर तुम्हारे पाँव...

–डॉ० ओम प्रकाश सिंह

August 1, 2023

सोने के हिरन नहीं होते

आधा जीवन जब बीत गया
बनवासी-सा गाते-रोते
अब पता चला इस दुनिया में
सोने के हिरन नहीं होते

सम्बन्ध सभी ने तोड़ लिए
चिन्ता ने कभी नहीं तोड़े
सब हाथ जोड़कर चले गये
पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े
सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें
हम समझ गये पाषाणों में-
वाणी, मन, नयन नहीं होते
अब पता चला...

मन्दिर-मन्दिर भटके-लेकर
खंडित विश्वासों के टुकड़े
उसने ही हाथ जलाये, जिस-
प्रतिमा के चरण-युगल पकड़े
जग जो कहना चाहे, कह ले
अविरल दृग जल धारा बह ले
पर जले हुए इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते
अब पता चला...

-कन्हैयालाल बाजपेयी

एक पेड़ चाँदनी

एक पेड़ चाँदनी
लगाया है आँगने
फूले तो
आ जाना
एक फूल माँगने

ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली
आ रही
बादल का रोना है
बिजली शरमा रही
मेरा घर छाया है
तेरे सुहाग ने
फूले तो...

तन कातिक
मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुँआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो
यह हिसाब
कर लेना बाद में
फूले तो...

नदी, झील, सागर के
रिश्‍ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
मुझको
पहुँचाया है
तुम तक अनुराग ने
फूले तो...

-देवेन्द्र कुमार बंगाली 

July 24, 2022

तुम निश्चिन्त रहना

कर दिये, लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र
तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गया नत भाल, पर्वत हो गया मन
बूँद भर जल बन गया पूरा समुन्दर
पा तुम्हारा दुख, तथागत हो गया मन
अश्रु-जन्मा गीत-कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र
तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुम से, न अब बातें उठेंगी
मैं स्वयं रंगीन दर्पन तोड़ आया
वह नगर, वह राजपथ, वे चौक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र
तुम निश्चिन्त रहना

लो, विसर्जन आज बासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाये कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोरपंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पायी प्रकाशित
मर चुका है एक एक चरित्र
तुम निश्चिन्त रहना
         
-किशन सरोज

August 7, 2018

राजा आएँगे

दीन-दलित के कीर्तन गाओ
राजा आएँगे
तोरन-बन्दनवार सजाओ
राजा आएँगे

उद्घाटन होगा
नूतन श्मशान घरों का
होगा मंगल-गान मूक
अँधे, बहरों का
फरियादी को दूर भगाओ
राजा आएँगे

माला लेकर
खड़े हुए तस्कर, अपराधी
बड़े सेठ के घर में है
बेटी की शादी
नयी प्रगति का जश्न मनाओ
राजा आएँगे

बिन त्योहार मनाई जाएगी
दीवाली
खूब बहेगी महँगी मदिराओं
की नाली
जनहित के नगमे दुहराओ
राजा आएँगे

छोड़ी जाएगी
आश्वासन की फुलझड़ियाँ
चीख़ों के होठों पर हों
गीतों की लड़ियाँ
कमलछाप झण्डा लहराओ
राजा आएँगे

-नचिकेता

December 19, 2017

राजधानी की नदी हूँ

राजधानी की नदी हूँ
साँवला था तन मगर
मनमोहिनी थी
कल्पनाओं की तरह
ही सोहिनी थी
अब न जाने कौन सा
रँग हो गया है
बाँकपन जाने कहाँ पर
खो गया है
देह से अंतःकरण तक
आधुनिकता से लदी हूँ

पांडु रोगी हो गये
संकल्प सारे
सोच में डूबे दिखे
भीषम किनारे
काल सीपी ने चुराये
धवल मोती
दर्द की उठतीं हिलोरें
मन भिगोती
कौरवों के जाल-जकड़ी
बेसहारा द्रौपदी हूँ

दौड़ती रुकती न दिल्ली
बात करती
रोग पीड़ित धार जल की
साँस भरती
लहरियों पर नाव अब
दिखती न चलती
कुमुदनी कोई नहीँ
खिलती मचलती
न्याय मंदिर में भटकती
अनसुनी सी त्रासदी हूँ

कालिया था एक वो
मारा गया था
दुष्टता के बाद भी
तारा गया था
कौन आयेगा यहाँ
बंसी बजाने
कालिया कुल कॊ पुनः
जड़ से मिटाने
आस का दीपक जलाये
टिमटिमाती सी सदी हूँ

-कल्पना मनोरमा

May 17, 2011

गमलों में उग आई नागफनी

 

हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी

जीवन ऐसे मोड़ों तक आ पहुँचा
आ जहाँ हृदय को सपने छोड़ गए
मरघट की सूनी पगडंडी तक ज्यों
कंधा दे शव को अपने छोड़ गए

सावन-भादो के मेघों के जैसा
मन भर-भर आया पीड़ा हुई घनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी

आशा के सुमन महक तो जाते पर
मुस्कानों वाले भ्रम ने मार दिया
पतझर को तो बदनामी व्यर्थ मिली
हमको मादक मौसम ने मार दिया

पूजन से तो इनक़ार नहीं था पर
अपने घर की मंदिर से नहीं बनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी

रंगों-गंधों में रहा नहाता पर
अपनापन इस पर भी मजबूरी है
कीर्तन में चाहे जितना चिल्लाए
मन की ईश्वर से फिर भी दूरी है

सौगंधों में अनुबंध रहे बँधते
पर मन में कोई चुभती रही अनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी

समझौतों के गुब्बारे बहुत उड़े
उड़ते ही सबकी डोरी छूट गई
विश्वास किसे क्या कहकर बहलाते
जब नींद लोरियाँ सुनकर टूट गई

सम्बंधों से हम जुड़े रहे यों ही
ज्यों जुड़ी वृक्ष से हो टूटी टहनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी

-धनंजय सिंह

May 14, 2011

छाया मत छूना, मन

छाया मत छूना, मन
होगा दुख दूना, मन ।।

जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध शैली मनभावनी
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी
भूली-सी एक छुअन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना, मन 

यश है, न वैभव है, मान है, न सरमाया
जितना ही दौड़ा तू, उतना ही भरमाया
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।
जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन
छाया मत छूना...

दुविधा-हत साहस है दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुख का है अंत नहीं
दुख है न चाँद खिला शरद रात आने पर
क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर
जो न मिला भूल उसे
कर तू भविष्‍य वरण
छाया मत छूना...

-गिरिजा कुमार माथुर