शाम सबेरे शगुन मनाती
खुशियों की परछाई
अम्मा की सुध आई
बड़े सिदौसे उठी बुहारे
कचरा कोने - कोने
पलक झपकते भर देती
थी नित्य भूख को दोने
जिसने बचे खुचे से अक्सर
अपनी भूख मिटाई
अम्मा की सुध आई
तुलसी चौरे पर मंगल के
रोज चढ़ाए लोटे
चढ़ बैठीं जा उसकी खुशियाँ
जाने किस परकोटे
किया गौर कब आँखों में थी
जमी पीर की काई
अम्मा की सुध आई
पूस कटा जो बुने रात-दिन
दो हाथों ने फंदे
आठ पहर हर बोझ उठाया
थके नहीं वो कंधे
एक इकाई ने कुनबे की
जोड़े रखी दहाई
अम्मा की सुध आई
बाँधे रखती थी कोंछे हर
समाधान की चाबी
बनी रही उसके होने से
बाखर द्वार नवाबी
अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी
जाने कौन पढ़ाई
अम्मा की सुध आई
-अनामिका सिंह
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