राजा मूँछ मरोड़ रहा है
राजा मूँछ मरोड़ रहा है
सिसक रही हिरनी
बड़े-बड़े सींगों वाला मृग
राजा ने मारा
किसकी यहाँ मजाल
कहे राजा को हत्यारा
मुर्दानी छायी जंगल में
सब चुपचाप खड़े
सोच रहे सब यही कि
आखिर आगे कौन बड़े
घूम रहा आक्रोश वृत्त में
ज्यों घूमे घिरनी
सिसक रही...
एक कहीं से स्वर उभरा
मुँह सबने उचकाये
दबे पड़े साहस के सहसा
पंख उभर आये
मन ही मन संकल्प हो गए
आगे बढ़ने के
जंगल के अत्याचारी से
जमकर लड़ने के
पल में बदली हवा
मुट्ठियाँ सबकी दिखीं तनी
सिसक रही...
रानी तू कह दे राजा से
परजा जान गयी
अब अपनी अकूत ताकत
परजा पहचान गयी
मचल गयी जिस दिन परजा
सिंहासन डोलेगा
शोषक की औकात कहाँ
कुछ आकर बोलेगा
उठो! उठो! सब उठो!
उठेगी पूरी विकट वनी
सिसक रही हिरनी।
-डा० जगदीश व्योम
waah ktaaksh
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत । बहुत बहुत बधाई । रेणु चन्द्रा
ReplyDeleteसहसा साहस के पँख उभर आए.. बहुत सुंदर
ReplyDeleteजबरदस्त कटाक्ष एवं प्रेरित करती रचना।
पल में बदली हवा भी
ReplyDeleteमुट्ठियां सबकी दिखीं तनी
शानदार नवगीत
बहुत सुंदर नवगीत
ReplyDeleteतीखे व्यंग्य करता.. नवगीत। आपकी लेखनी अद्भुत
ReplyDeleteसामाजिक विद्रूपताओं पर तीखे व्यंग्य करता हुआ बहुत सुंदर नवगीत सर..
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