सूरज की प्रत्यंचा पर जब
चढ़े धूप के तीर
निकला है आखेट खेलने
पहन पगड़िया लाल
अंगरखा केसरिया सोहे
दमके स्वर्णिम भाल
सप्त अश्व-रथ दौड़ रहा है
मेघ शृंखला चीर
सूरज की प्रत्यंचा...
डर के मारे नदी ताल के
प्राण गए हैं सूख
मूर्छित सरि- तट की हरियाली
कौन मिटाए भूख
बुझी नहीं सूरज की तृष्णा
पीकर सारा नीर
सूरज की प्रत्यंचा...
अलसायी सोयी पेड़ों में
ज्वर-पीड़िता बयार
बिगड़े देख सूर्य के तेवर
चढ़ता तेज बुखार
तप्त हवा के उच्छ्वासों में
लपटों जैसी पीर
सूरज की प्रत्यंचा...
निष्क्रिय हुआ सृष्टि का खेमा
चेतनशून्य निढाल
निष्प्रभ करने लगीं झुर्रियाँ
वसुन्धरा का भाल
कण्ठ शुष्क औ' दग्ध हृदय है
चुकने को है धीर
सूरज की प्रत्यंचा...
-सुधा राठौर
वाह!सुन्दर उपमाओं से सजी ,सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ मई २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
अप्रतिम, अभिनव, सुंदर उपमाएं, अभिव्यंजनाएं मानवीय करण सहित।
ReplyDeleteवाह।
देख सूर्य के बिगड़े तेवर।
निष्क्रिय हुआ सृष्टि का खेमा
ReplyDeleteचेतनशून्य निढाल
.. यथार्थ की कसौटी पर सुंदर नवगीत