सुधियों की अरगनी
बाँध कर सम्बोधन झूले
सहन भर गीत फूल-फूले
सर्वनाम आकर सिरहाने
माथा दबा गया
अनबुहरा घर लगा दीखने
फिर से नया-नया
तन-मन हल्का हुआ,
अश्रु का भारीपन भूले
सहन भर...
मिली, खिली रोशनी, अँधेरा
पीछे छूट गया
ऐसा लगा कि दीवाली का
दर्पण टूट गया
लगे दीखने तारे
जैसे हों लँगड़े-लूले
सहन भर...
हवा किसी रसवन्ती ऋतु की
साँकल खोल गई
होठों की पंखुरी न खोली
फिर भी बोल गई
सम्भव है यह गन्ध
तुम्हारे आँचल को छू ले
सहन भर...
दमक उठे दालान, देहरी
महकी क्यारी-सी
लगी चहकने अनबोली
बाखर फुलवारी-सी
झूम उठे सारे वातायन
भीनी ख़ुशबू ले
सहन भर...
-रमेश रंजक
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।बधाई ।रेणु चन्द्रा
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