December 21, 2023

सम्बोधन झूले

सुधियों की अरगनी 
बाँध कर सम्बोधन झूले
सहन भर गीत फूल-फूले

सर्वनाम आकर सिरहाने
माथा दबा गया
अनबुहरा घर लगा दीखने
फिर से नया-नया
तन-मन हल्का हुआ, 
अश्रु का भारीपन भूले
सहन भर... 

मिली, खिली रोशनी, अँधेरा
पीछे छूट गया
ऐसा लगा कि दीवाली का
दर्पण टूट गया
लगे दीखने तारे 
जैसे हों लँगड़े-लूले
सहन भर... 

हवा किसी रसवन्ती ऋतु की
साँकल खोल गई
होठों की पंखुरी न खोली
फिर भी बोल गई
सम्भव है यह गन्ध 
तुम्हारे आँचल को छू ले
सहन भर... 

दमक उठे दालान, देहरी
महकी क्यारी-सी
लगी चहकने अनबोली
बाखर फुलवारी-सी
झूम उठे सारे वातायन 
भीनी ख़ुशबू ले
सहन भर... 

-रमेश रंजक

1 comment:

  1. Anonymous6:45 AM

    बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।बधाई ।रेणु चन्द्रा

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