मैं नहीं हूँ पात्र नाटक का तुम्हारे
इसलिए मेरा अलग संवाद लगता
बोलते भाषा तुम्हारी, अन्य हैं वे
शब्द तुमसे ऋण में लेकर
धन्य हैं वे
है वही मुद्रा कि जैसी है तुम्हारी
शक्ल तक कठपुतलियों की है उधारी
मंच पर जो लोग हैं, मौलिक नहीं हैं
शब्दश: हर आदमी अनुवाद लगता
मैं नहीं हूँ...
दोस्ती क्या, दुश्मनी भी है दिखावा
है घृणा क्या, प्रेम का भी व्यर्थ दावा
क्रोध झूठा, है यहाँ मुस्कान झूठी
सुख भी झूठा, दुख भी झूठा
शान झूठी
मर चुक संवेदनाएँ, भाव लेकिन-
क्या प्रदर्शन है कि जिंदाबाद लगता
मैं नहीं हूँ...
खींचता हूँ मैं यहाँ परदे की डोरी
हूँ जरा बदले जमाने का मैं होरी
खींच दूँ परदा तो नाटक बंद समझो
बीच में ही आखिरी का छंद समझो
मंच पर होकर भी मैं न मंच का हूँ
इसलिए इस मंच पर अपवाद लगता.
मैं नहीं हूँ...
-जीवन यदु
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