बाहर खुला-खुला मौसम है
भीतर से साँकल है
यह पतझर की प्रवंचना है
या वसंत का छल है
बाजारों में महँगी-महँगी
चीजें खूब सजीं
किश्तों पर ले आए खुशियाँ
लेकिन बुझी-बुझी
करजा लेकर घी पीने का
कैसा नया शगल है
भय से कातर हुई प्रजा के
होंठ नहीं खुलते
राजा जी शतरंज बिछाए
अट्टहास करते
हाथी-घोड़े की चालों में
पिटा सदा पैदल है
मकड़ी के जालों से कोई
कोना नहीं बचा
खिड़की-रोशनदान खोल दे
किसमें है बूता
फिर भी हर चिट्ठी में दादा
लिखते ‘शेष’ कुशल है ।
-डा. वेदप्रकाश अमिताभ
वाह
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDelete