May 18, 2024

शेष कुशल है

बाहर खुला-खुला मौसम है 
भीतर से साँकल है 
यह पतझर की प्रवंचना है 
या वसंत का छल है 

बाजारों में महँगी-महँगी 
चीजें खूब सजीं 
किश्तों पर ले आए खुशियाँ 
लेकिन बुझी-बुझी 
करजा लेकर घी पीने का 
कैसा नया शगल है 

भय से कातर हुई प्रजा के 
होंठ नहीं खुलते 
राजा जी शतरंज बिछाए
अट्टहास करते 
हाथी-घोड़े की चालों में 
पिटा सदा पैदल है 

मकड़ी के जालों से कोई 
कोना नहीं बचा 
खिड़की-रोशनदान खोल दे 
किसमें है बूता 
फिर भी हर चिट्ठी में दादा 
लिखते ‘शेष’ कुशल है । 

 -डा. वेदप्रकाश अमिताभ 

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