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December 21, 2015

बाँसुरी बजाना नहीं

बाट-बाट मुरझे कचनार
बाँसुरी बजाना नहीं

आँगन में मसले हैं
कदम-कदम फूल
पलकों पर बिछे हुए
सदियों के शूल
राह-राह चलते बटमार
चाँदनी उगाना नहीं

शब्द-शब्द जगा रहे
जादू के महल
लोग जड़े पत्थर-से
कौन करे पहल
गाँव-गाँव जगे गुनहगार
सीटियाँ बुलाना नहीं

शहरों से पूछ रहा
पता वही आदिम
साँपों-सा फन काढ़े
ताक रहा खादिम
पाँव-पाँव सटते गुफ्तार
झाँड़ियाँ उगाना नहीं

-रामनरेश पाठक

(गीत वसुधा से साभार)

साँझ हुई

साँझ हुई, साँझ

हँसिए के ताल थमे
चूड़ी के गीत रुके
सधवा खलिहानों में
सूपों की बंद हुई नाच हुई
साँझ हुई, साँझ

मेड़ों की दूबों पर
मिलने का मोह लगा
मुठिया की बालों पर
खोया-सा छोह पगा
थके-थके लोचन में
खुशियों के बोल नई आँक गई
साँझ हुई, साँझ

कद्दू की लतरों को
धुँएँ ने धूम लिया
अरहर के फूलों को
किरणों ने चूम लिया
पनघट पर गोरी की
बाज नई झाँझ गई
साँझ हुई, साँझ

-रामनरेश पाठक