July 25, 2024

एक हाथ में हल की मुठिया

एक हाथ में हल की मुठिया
एक हाथ में पैना
मुँह में तिक-तिक बैल भागते
टालों का क्या कहना
भइ टनन टनन का गहना

सिर पर पाग बदन पर बंडी
कसी जाँघ तक धोती
ढलक रहे माथे से नीचे
बने पसीना मोती
टँगी मूँठ में हलकी थैली
जिसमें भरा चबेना
भइ गुन गुन का क्या कहना

जोड़ी लिए जुए को जाती
बँधा बँधा हल खिंचता
गरदन हिलती टाली बजती
दिल धरती का सिंचता
नाथ-जेबड़े रंग बिरंगे
बढ़िया गहना पहना
भइ सजधज का क्या कहना

गढ़ी पैंड की नोंक जमीं पे
खिंच लकीर बन जाती
उठती मिट्टी फिर आ गिरती
नोंक चली जब जाती
बनी हलाई, हुई जुताई
सुख का सोता बहता
भइ इस सुख का क्या कहना
भइ टनन टनन का गहना

-विश्वनाथ राघव


["धरती के गीत" संकलन से]

July 21, 2024

खेतों में महक रहे धान

खेतों में महक रहे धान
टुकुर-टुकुर देख रहा लॉन 

धरती से बतियाती ओस
भीगी-भीगी लगती रात
सर्दी की गुनगुनी छुवन
डाल-डाल और पात-पात
ठाँव-ठाँव पाँव के निशान
टुकुर-टुकुर देख रहा लॉन

चहक उठे चिड़ियों के झुंड
आपस में साधे सुर ताल
धोखा है बीच में खड़ा 
भूख भी नहीं सकते टाल
शायद कुछ मिल जाए दान
टुकुर-टुकुर देख रहा लॉन

गर्म हवा राजनीति की
मेड़ों पर कर रही सलाह
ठंडे हैं सूरज के बोल
सिमट रही बरगद की छाँह
कुहरे में क्या करे किसान 
टुकुर-टुकुर देख रहा लॉन। 

-डॉ. अशोक अज्ञानी 

गोबर से लालटेन जलती है

गोबर से लालटेन जलती है
बात यही महलों को खलती है

इधर-उधर से जोड़ा जाड़ी कर
रामधनी ई रिक्शा ले आया
बुधुआ ने रोज की मजूरी से
छिपने भर का कमरा बनवाया
नन्हकइया बाइक से चलती है

इसी बात पर ऊँची बिरादरी
घूमती फिरे ऐंठी ऐंठी है
पेट के लिए आखिर धनिया क्यों
गुमटी में पान लिए बैठी है
अपनी ही मेहनत पर पलती है

भट्ठे पर ईंट पाथती छुटकी
सहती रहती ताने अक्सर है
धुआँ नहीं उठता अब झुग्गी में
पाँच किलो गैस का सिलेंडर है
मुफलिस की राह भी सँभलती है
बात यही महलों को खलती है।

-डॉ. अशोक अज्ञानी

तुम कुछ मत कहना

 बेटा ! 
निर्वाचित प्रधान से
तुम कुछ मत कहना

चाहें कायाकल्प
गाँव से कोसों दूर रहे
या गलियों में
जातिवाद वाला दस्तूर रहे
तुम तो 
अपनी लघुता की
सीमाओं में रहना
बेटा ! ... 

ग्राम सभा वाली 
ज़मीन पर लाठी चलनी है
और विपक्षी के 
खेतों से सड़क निकलनी है
अभी
रक्त को भी है 
फूटे सिर में से बहना
बेटा ! ... 

जत्था रहता है
प्रधान के साथ दबंगों का
जो कट्टर दुश्मन है
मानवता के अंगों का
और
समझता है जो
हिंसा को अपना गहना
बेटा ! ... 

-विवेक चतुर्वेदी

सपने में आये हो बैठो

सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।
मौसम बहुत उदार यहाँ का
उर का ताप हरो।।

स्वप्न-देश में मेरा शासन
मैं ही इसकी रानी
सुधियाँ तुम्हें खींच लाई हैं
करने को मनमानी
निष्कासित हर नियम यहाँ से,
मन चाहा बिचरो।
सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।।

बैसे तो मैं मात्र व्यथा हूँ
सपने में हूँ नारी
पढ़कर नयन हृदय पर लिख दूँ
भाषा अति शृंगारी
ऐसे में मत रहो देवता
मानव बन निखरो।
सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।।

जागूँ तो कबीर की साखी
सोऊँ, पंक्ति बिहारी
मुख खोलूँ तो बंजारिन हूँ
घूँघट में ब्रजनारी
विद्यापति की मुखर नायिका
इतना ध्यान धरो।
सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।।
   
-ज्ञानवती सक्सेना

July 15, 2024

पुरवा जो डोल गई

पुरवा जो डोल गई 
घटा-घटा आँगन  में 
जूड़े-सा खोल गई। 

बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया 
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंबर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ
मइया के मंदिर में-
डुग-डुग-डुग-डुग-
बधइया फिर बोल गई। 

बरगद की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
विरहा की तानों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालक तक व्याहों की बात टली
बात बड़ी छोटी पर बहुतों को बहुत खली
नीम तले चौरा पर-
मीरा की गुड़िया के
व्याह वाली चर्चा 
रस घोल गई। 

खनक चूडियों की सुना मेंहदी के पातों ने
कलियों पै रंग फेरा मालिन की बातों ने
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखो में ममता का सेहरा है
नदिया से उमक-उमक
मछली वह छमक-छमक
पानी की चूनर को
दुनिया से मोल गई  

झूले के झूमक हैं शाखों के कानों में 
शबनम की फिसलन है केले की रानों में 
ज्वार और अरहर की हरी-हरी सारी है
सनई के फूलों की गोटा किनारी है   
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बांँहों में 
धोबिन भी पाटे पर
हइया छू बोल गई। 

-डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया।

June 3, 2024

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !
दूर गये कज्जल घन, श्यामल-
अम्बर में निखरी !

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !
मन्द समीरण, शीतल सिहरन, 
तनिक अरुण द्युति छाई,
रिमझिम में भीगी धरती, 
यह चीर सुखाने आई,
लहरित शस्य-दुकूल हरित, 
चंचल अचंल-पट धानी,
चमक रही मिट्टी न, 
देह दमक रही नूरानी,
अंग-अंग पर धुली-धुली,
शुचि सुन्दरता सिहरी !

राशि-राशि फूले फहराते 
काश धवल वन-वन में,
हरियाली पर तोल रही 
उड़ने को नील गगन में,
सजल सुरभि देते नीरव 
मधुकर की अबुझ तृषा को,
जागरूक हो चले कर्म के 
पंथी ल्क्ष्य-दिशा को,
ले कर नई स्फूर्ति कण-कण पर
नवल ज्योति उतरी !

मोहन फट गई प्रकृति की, 
अन्तर्व्योम विमल है,
अन्धस्वप्न फट व्यर्थ बाढ़ का 
घटना जाता जल है,
अमलिन सलिला हुई सरी,
शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,
छू जीवन का सत्य, 
वायु बह रही स्वच्छ साँसों की,
अनुभवमयी मानवी-सी यह
लगती प्रकृति-परी !

-राजेन्द्र प्रसाद सिंह

May 18, 2024

शेष कुशल है

बाहर खुला-खुला मौसम है 
भीतर से साँकल है 
यह पतझर की प्रवंचना है 
या वसंत का छल है 

बाजारों में महँगी-महँगी 
चीजें खूब सजीं 
किश्तों पर ले आए खुशियाँ 
लेकिन बुझी-बुझी 
करजा लेकर घी पीने का 
कैसा नया शगल है 

भय से कातर हुई प्रजा के 
होंठ नहीं खुलते 
राजा जी शतरंज बिछाए
अट्टहास करते 
हाथी-घोड़े की चालों में 
पिटा सदा पैदल है 

मकड़ी के जालों से कोई 
कोना नहीं बचा 
खिड़की-रोशनदान खोल दे 
किसमें है बूता 
फिर भी हर चिट्ठी में दादा 
लिखते ‘शेष’ कुशल है । 

 -डा. वेदप्रकाश अमिताभ 

December 21, 2023

सम्बोधन झूले

सुधियों की अरगनी 
बाँध कर सम्बोधन झूले
सहन भर गीत फूल-फूले

सर्वनाम आकर सिरहाने
माथा दबा गया
अनबुहरा घर लगा दीखने
फिर से नया-नया
तन-मन हल्का हुआ, 
अश्रु का भारीपन भूले
सहन भर... 

मिली, खिली रोशनी, अँधेरा
पीछे छूट गया
ऐसा लगा कि दीवाली का
दर्पण टूट गया
लगे दीखने तारे 
जैसे हों लँगड़े-लूले
सहन भर... 

हवा किसी रसवन्ती ऋतु की
साँकल खोल गई
होठों की पंखुरी न खोली
फिर भी बोल गई
सम्भव है यह गन्ध 
तुम्हारे आँचल को छू ले
सहन भर... 

दमक उठे दालान, देहरी
महकी क्यारी-सी
लगी चहकने अनबोली
बाखर फुलवारी-सी
झूम उठे सारे वातायन 
भीनी ख़ुशबू ले
सहन भर... 

-रमेश रंजक

December 19, 2023

मेरा अलग संवाद

मैं नहीं हूँ पात्र नाटक का तुम्हारे
इसलिए मेरा अलग संवाद लगता

बोलते भाषा तुम्हारी, अन्य हैं वे
शब्द तुमसे ऋण में लेकर
धन्य हैं वे
है वही मुद्रा कि जैसी है तुम्हारी
शक्ल तक कठपुतलियों की है उधारी
मंच पर जो लोग हैं, मौलिक नहीं हैं
शब्दश: हर आदमी अनुवाद लगता
मैं नहीं हूँ... 

दोस्ती क्या, दुश्मनी भी है दिखावा
है घृणा क्या, प्रेम का भी व्यर्थ दावा
क्रोध झूठा, है यहाँ मुस्कान झूठी
सुख भी झूठा, दुख भी झूठा
शान झूठी
मर चुक संवेदनाएँ, भाव लेकिन-
क्या प्रदर्शन है कि जिंदाबाद लगता
मैं नहीं हूँ... 

खींचता हूँ मैं यहाँ परदे की डोरी
हूँ जरा बदले जमाने का मैं होरी
खींच दूँ परदा तो नाटक बंद समझो
बीच में ही आखिरी का छंद समझो
मंच पर होकर भी मैं न मंच का हूँ
इसलिए इस मंच पर अपवाद लगता.
मैं नहीं हूँ... 

-जीवन यदु 

December 9, 2023

सूरज की प्रत्यंचा पर

सूरज की प्रत्यंचा पर जब
चढ़े धूप के तीर 

निकला है आखेट खेलने
पहन पगड़िया लाल
अंगरखा केसरिया सोहे
दमके स्वर्णिम भाल
सप्त अश्व-रथ दौड़ रहा है
मेघ शृंखला चीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

डर के मारे नदी ताल के
प्राण गए हैं सूख
मूर्छित सरि- तट की हरियाली
कौन मिटाए भूख
बुझी नहीं सूरज की तृष्णा 
पीकर सारा नीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

अलसायी सोयी पेड़ों में
ज्वर-पीड़िता बयार
बिगड़े देख सूर्य के तेवर
चढ़ता तेज बुखार
तप्त हवा के उच्छ्वासों में
लपटों जैसी पीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

निष्क्रिय हुआ सृष्टि का खेमा
चेतनशून्य निढाल
निष्प्रभ करने लगीं झुर्रियाँ
वसुन्धरा का भाल
कण्ठ शुष्क औ' दग्ध हृदय है
चुकने को है धीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

-सुधा राठौर

चलिए, बाजार तक चलें

एक  अदद
शब्द के लिए
चलिए, 
बाजार तक चलें
मौसम का
हाल पूछने -
ताज़ा अख़बार तक चलें ।

 ज़िस्म मेमने
 का क्या हुआ
 बेतुका सवाल छोड़िए
 स्वाद के नशे में घूमते
 भेड़िए को हाथ जोड़िए
 ज़ुर्म की शिनाख़्त के लिए
 आला दरबार तक चलें ।
 
 ऐसी आंँधी गुज़र  गई
 ज़हर हुए, वन, नदी, पहाड़
 सगे-सगे लगे हैं हमें
 डोलते कबंध, कटे ताड़
 लदे हरसिंगार के लिए
 छपे इश्तेहार तक चलें। 

जोंक जो हुई ये ज़िन्दगी
उम्र है ढहा  हुआ किला
तेंदुए मिले कभी-कभी
आदमी कहीं नहीं मिला
आइए, तलाश के लिए
इसी यादगार तक चलें। 
    
-उमाशंकर तिवारी

November 30, 2023

अम्मा की सुध आई

शाम सबेरे शगुन मनाती 
खुशियों की परछाई 
अम्मा की सुध आई 

बड़े सिदौसे उठी बुहारे 
कचरा कोने - कोने 
पलक झपकते भर देती 
थी नित्य भूख को दोने 
जिसने बचे खुचे से अक्सर 
अपनी भूख मिटाई 
अम्मा की सुध आई 

तुलसी चौरे पर मंगल के 
रोज चढ़ाए लोटे
चढ़ बैठीं जा उसकी खुशियाँ
जाने किस परकोटे 
किया गौर कब आँखों में थी 
जमी पीर की काई 
अम्मा की सुध आई 

पूस कटा जो बुने रात-दिन
दो हाथों ने फंदे
आठ पहर हर बोझ उठाया 
थके नहीं वो कंधे
एक इकाई ने कुनबे की 
जोड़े रखी दहाई 
अम्मा की सुध आई 

बाँधे रखती थी कोंछे हर
समाधान की चाबी 
बनी रही उसके होने से 
बाखर द्वार नवाबी 
अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी
जाने कौन पढ़ाई 
अम्मा की सुध आई 

-अनामिका सिंह

November 26, 2023

उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

                                [डॅा. कुँअर बेचैन जी का एक गीत]

जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!

हर पुरवा का झोंका तेरा घूँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन में तेरे आँसू की व्यथा
हर कोयल की ‘कुहू’ में तेरी कल्पना
जितनी दूर खुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज़ सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का, छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!

हर पत्ते में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका में तेरी ही प्रिय साधना
हर डाली में तेरे तन की झाँइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना
जितनी दूर रूप घूँघट से
जितनी दूर प्यास पनघट से
गागर जितनी दूर नीर की ठाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!

क्या है, कैसा है, कैसे मैं यह कहूँ
तुझसे दूर, अपरिचित, फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम कि तू हर साँस में
बसा हुआ जैसे मन में संगीत है
जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोखियाँ लट से
जितनी दूर याद कागा की काँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!
                      
-डा० कुँअर बेचैन

November 23, 2023

गाँव नहीं छोड़ा

दरवाजे का
आम-आँवला 
घर का तुलसी-चौरा 
इसीलिए!
अम्मा ने अपना
गाँव नहीं छोड़ा 
           
पैबन्दों को सिलते
मन से उदास होती 
भैया के आने की खुशबू
भर से खुश होती 
भाभी ने
कितना समझाया
मान नहीं तोड़ा 
   
कभी-कभी
बजते घर में 
घुंँघरू से पोती-पोते 
छोटे-छोटे बँटे बताशे 
हाथों के सुख होते 
घर की खातिर
लुटा दिया सब
रखा न कुछ थोड़ा 

गहना बनने
वाले दिन में 
खेत खरीद लिये 
बाबूजी के
कहे हुए सब
सपने संग लिए 
सह न सकी
जब खूँटे पर से
गया बैल जोड़ा
         
-डा० शांति सुमन

जबकि वक्त है

जबकि वक्त है…

शौक तुम्हें 
अब भी घर में
सामान जोड़ने का 
जबकि वक्त है 
खाली करके 
इसे छोड़ने का 

और अभी बंदनवारें
कितनी बनवानी हैं
और कहां,कितनी लड़ियां 
झूलन लटकानी हैं
खिड़की -द्वारे तोड़ पुराने ,
नए लगाना है
दीवारों पर कितनी उबटन 
और चढ़ानी है 
सोना सिर पर लाद
कहां तक
और दौड़ने का !!!

कहते हो-ऊपर पक्का
कमरा बनवाना है 
और मरम्मत टूटे सोफे की
करवाना है 
बाथरूम फिल्मी ढंग के
और किचिन बनाना है 
फर्श पुराने को उखाड़कर 
नया लगाना है !!
घर का मुँह पूरब से
पश्चिम ओर मोड़ने का 

ऐसी भी क्या आज 
जरूरत धूल उड़ाने की
फर्श पुराने को उखाड़कर 
नया लगाने की 
चिन्ता कुछ भी नहीं
पुराना कर्ज पटाने की 
लिया जहाँ से जो कुछ वह 
वापस लौटाने की 
वक्त हुआ सतनाम 
ओढ़नी 
आज ओढ़ने का !!

यह पड़ाव पीले पत्तों जैसा 
गिरने का है!
शान्त चित्त से ग्रंथों के अध्ययन 
करने का है !
यह क्षण प्रभु में ध्यान शान्त 
मन से धरने का है ! 
शोषित दीन-दलित, दुखियों के 
दुख हरने का है !!
वक्त यही है
उपनिषदों से
रस निचोड़ने का  !!

शौक तुम्हें 
अब भी घर में
सामान जोड़ने का

-राजेन्द्र शर्मा 'अक्षर'

November 6, 2023

कहो कबीरा

ठंड लगी है, सिकुड़ रहे हो
कहो कबीरा ! चादर दूँ ?
मन की पीर नही ले सकता
तन के हित क्या लाकर दूँ ?

मेरी चादर कुछ मैली है
थोडा सा सह लोगे क्या ?
अभी भोर में बहुत देर है
अपनाकर रह लोगे क्या ?
तुमसे एक जुलाहे तुम ही,
तुमको क्या बनवाकर दूँ ?

काशी में कबीर हो जाना
आज शिष्ट व्यवहार नही,
और नगर ये उलटबाँसियाँ
सहने को तैयार नहीं
सुनो कबीरा ! वहाँ न जाना
धूनी यहीं रमाकर दूँ ?

हो सकता है समय लगे
"मगहर" होने में काशी को,
कबिरा से अल्हड फ़कीर का
घर होने में काशी को 
बोलो तुम्हें कहाँ से सुख दूँ,
कहो कौनसा आदर दूँ ?

दुनिया की हालत है जैसे
धुनी रुई के फाहे की,
मगर उसे भी फिक्र नहीं है
वो भी एक जुलाहे की ?
जटिल पहेली पूछी साधो !
मैं कैसे सुलझाकर दूँ ?

-चित्रांश वाघमारे

September 19, 2023

साधो दरस परस सब छूटे

साधो दरस-परस सब छूटे 
सूख गई पन्नों की स्याही 
संवादों के रस छूटे
साधो! दरस परस सब छूटे।

मृत अतीत की नई व्याख्या 
पढ़ना सुनना है
शेष विकल्प नहीं अब कोई 
फिर भी चुनना है
रातें और संध्याएँ छूटीं 
अब कुनकुने दिवस छूटे 
साधो!...

नहीं निरापद हैं यात्राएँ 
उठते नहीं कदम
रोज-रोज सपनों का मरना
देख रहे हैं हम
हाथों से उड़ गए कबूतर 
कौन बताए कस छूटे
साधो! ...

आदमकद हो गए आइने
चेहरे बौने हैं
नोन, राई, अक्षत,सिंदूर के
जादू-टोने के
लहलहाई अपयश की फसलें 
जनम-जनम के यश छूटे 
साधो! ...
     
-शिवकुमार अर्चन

September 12, 2023

अभी न होगा मेरा अन्त

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस
लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत
सहर्ष सींच दूँगा मैं
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
हैं मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

मेरे जीवन का यह है
जब प्रथम चरण
इसमें कहाँ मृत्यु ?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे
सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर
बहता रे, बालक-मन
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु
दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त

-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

September 6, 2023

हम उदास हैं और नदी में आग लगी है

 हम उदास हैं
और नदी में आग लगी है
कैसा है दिन ! 
 
अंधे सपनों का आश्वासन
हमें मिला है
नदी-किनारे फिर
ज़हरीला फूल खिला है
दिन-भर सोई
आँख बावरी रात जगी है
कैसा है दिन! 

छली हवाओं ने
जंगल में पतझर बाँटे
सीने में चुभ रहे
सैकड़ों पिछले काँटे
 बस्ती-बस्ती
शाहों की चल रही ठगी है
कैसा है दिन! 

आदमक़द कारों से निकले
चौपट बौने
सहमे घूम रहे हैं
जंगल में मृगछौने
धुनें पराई
हम सबको लग रहीं सगी हैं
कैसा है दिन  

-कुमार रवीन्द्र

September 5, 2023

राजा मूँछ मरोड़ रहा है

राजा मूँछ मरोड़ रहा है

राजा मूँछ मरोड़ रहा है
सिसक रही हिरनी

बड़े-बड़े सींगों वाला मृग
राजा ने मारा
किसकी यहाँ मजाल
कहे राजा को हत्यारा
मुर्दानी छायी जंगल में
सब चुपचाप खड़े
सोच रहे सब यही कि
आखिर आगे कौन बड़े
घूम रहा आक्रोश वृत्त में
ज्यों घूमे घिरनी
सिसक रही...

एक कहीं से स्वर उभरा
मुँह सबने उचकाये
दबे पड़े साहस के सहसा
पंख उभर आये
मन ही मन संकल्प हो गए
आगे बढ़ने के
जंगल के अत्याचारी से 
जमकर लड़ने के
पल में बदली हवा
मुट्ठियाँ सबकी दिखीं तनी
सिसक रही... 

रानी तू कह दे राजा से
परजा जान गयी
अब अपनी अकूत ताकत 
परजा पहचान गयी
मचल गयी जिस दिन परजा
सिंहासन डोलेगा
शोषक की औकात कहाँ 
कुछ आकर बोलेगा
उठो! उठो! सब उठो!
उठेगी पूरी विकट वनी
सिसक रही हिरनी।

-डा० जगदीश व्योम

September 4, 2023

फिर कुण्डी खटकी है

फिर कुण्डी खटकी है शुभदे
देख नया दुख आया होगा
खुद चल कर आया होगा/या
अपनों ने पहुंचाया होगा.

सबके हिस्से में से,थोड़ी-थोड़ी
रोटी और घटाले
दाल जरा सी है तो क्या है
थोड़ा पानी और बढ़ा ले
भूख उसे लग आई होगी
पता नहीं कब खाया होगा.

इतने जब पलते आए हैं
एक और भी पल जायेगा
खुश हो पगली,हमको भी इक
नया सहारा मिल जाएगा
दुख ही तो ऐसा साथी है
जो न कभी पराया होगा.

ये बेचारे कहां ठहर पाते हैं
सूरज वालों के घर
इनकी गुजर-बसर होती है
हम जैसे कंगालों के दर
पूछ देख ले किसी हवेली ने
दुत्कार भगाया होगा?

-प्रदीप दुबे

September 2, 2023

सुनो सभासद

सुनो सभासद
हम केवल
विलाप सुनते हैं
तुम कैसे सुनते हो अनहद ! 

पहरा बैसे
बहुत कड़ा है
देश किन्तु अवसन्न पड़ा है
खत्म नहीं
हो पायी अब तक
मन्दिर से मुर्दों की आमद
सूनो सभासद.. .

आवाजों से
बचती जाए
कानों में है रुई लगाए
दिन-पर-दिन है
बहरी होती जाती
यह बड़-बोली संसद
सूनो सभासद.. .

बौने शब्दों के
आश्वासन
और दुःखी कर जाते हैं मन
उतना छोटा
काम कर रहा
जिसका है जितना ऊँचा कद
सूनो सभासद.. .      

-माहेश्वर तिवारी

August 31, 2023

कुछ न मिला जब

कुछ न मिला जब 
धनुर्धरों से
बंशी वारे से 
हार-हूर कर माँग रहे हैं
भील-भिलारे से 

ला चकमक तो दे
चिंतन में आग लगाना है
थोड़ी सी किलकारी दे
बच्चे बहलाना है
कैसे डरे-डरे बैठे हैं
अक्षर कारे से 
कुछ न मिला जब... 

हम पोशाकें पहन
पिघलते रहते रखे-रखे
तूने तन-मन कैसे साधा
नंग-मनंग सखे
हमको भी चंगा कर
गंडा, बूटी, झारे से 
कुछ न मिला जब... 

हम कवि हैं
चकोरमुख से अंगार छीनते हैं
बैठे-ठाले शब्दकोश के
जुएँ बीनते हैं
मिले तिलक छापे
गुरुओं के पाँव पखारे से 
कुछ न मिला जब... 

एक बददुआ-सी है मन में
कह दें, तो बक दूँ,
एक सेर महुआ के बदले
गोरी पुस्तक दूँ,
हमें मिला सो तू भी पा ले
ज्ञान उजारे से 
कुछ न मिला जब... 

-महेश अनघ

August 17, 2023

तू ने भी क्या निगाह डाली री मंगले !

तू ने भी क्या निगाह डाली
री मंगले ! 

मावस है स्वर्ण-पंख वाली
करधनियां पहन लीं मुंडेरों ने
आले ताबीज पहन आये
खड़े हैं कतार में बरामदे
सोने की कण्ठियाँ सजाये
मिट्टी ने आग उठाकर माथे
बिन्दिया सुहाग की बना ली
री मंगले! 

मावस है स्वर्ण-पंख वाली
सरसरा गयीं देहरी-द्वार पर
चकरी-फुलझड़ियों की पायलें
बच्चों ने छतों-छतों दाग दीं
उजले आनन्द की मिसाइलें
तानता फिरे बचपन हर तरफ़
नन्हीं सी चटचटी दुनाली
री मंगले !

मावस है स्वर्ण-पंख वाली
द्वार-द्वार डाकिये गिरा गये
अक्षत-रोली-स्वस्तिक भावना
सारी नाराज़ियां शहरबदर
फोन-फोन खनकी शुभ कामना
उत्तर से दक्षिण सोनल-सोनल
झिलमिल रामेश्वरम्-मनाली
री मंगले !
मावस है स्वर्ण-पंख वाली
   
-रमेश यादव