जाने क्यों इतनी जल्दी ही,
वापस लिया बुला
प्रभु ने दी थी मुझको,
जग की सबसे अच्छी माँ
अपने भाई, चन्दा के घर
रोज हमें ले जातीं
और वहाँ से दही बताशे,
दूध मखाने लातीं
माँ के हाथों में बसता था,
स्वाद जगत का सारा
सब्जी, रोटी, दाल, भात भी,
अमृत तुल्य बनातीं
व्यंजन पकवानों से पूरित
रहती सदा रसोई
अन्नपूर्णा, तृप्तिदायिनी,
सन्तोषी, सुखदा
प्रभु ने दी थी...
अपने पाँव मोड़,
पूरी चादर में हमें सुलाया
धूप, हवा बारिश में,
अपने आँचल बीच छुपाया
कठिनाई में धैर्य पिता को,
सम्बल हर मुश्किल में
अपनेपन से, हिलमिल सबसे,
जीना हमें सिखाया
जीवन दिया, सँवारा बचपन,
फिर ले गईं विदा
ममता नेहभरी, वत्सल तुम,
हम को गई रूला
प्रभु ने दी थी...
भाई बहन, संग परिजन
निशिदिन करते याद तुम्हारी
रंग-बिरंगी है, सुरभित है,
रोपी जो फुलवारी
सपनों में दिखती हो माँ,
दिखतीं बादल-तारों में
आओ कभी लौट आँगन में,
लौटें, खुशियाँ सारी
छन्द ग्रन्थ सब छोटे हैं,
माँ, बौनी है कविता
वाणी अक्षम, मौन अश्रु में
स्वीकारो, श्रद्धा
प्रभु ने दी थी मुझको,
जग की सब से अच्छी माँ
जाने क्यों...
-डॉ. विनोद निगम
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