इतना भी
आसान कहाँ है
पानी को पानी कह पाना!
कुछ सनकी
बस बैठे ठाले
सच के पीछे पड़ जाते हैं
भले रहें गर्दिश में
लेकिन अपनी
ज़िद पर अड़ जाते हैं
युग की इस
उद्दण्ड नदी में
सहज नहीं उल्टा बह पाना!
इतना भी.... !!
यूँ तो सच के
बहुत मुखौटे
कदम-कदम पर
दिख जाते हैं
जो कि इंच भर
सुख की ख़ातिर
फुटपाथों पर
बिक जाते हैं
सोचो!
इनके साथ सत्य का
कितना मुश्किल है रह पाना!
इतना भी............. !!
जिनके श्रम से
चहल-पहल है
फैली है
चेहरों पर लाली
वे शिव हैं
अभिशप्त समय के
लिये कुण्डली में
कंगाली
जिस पल शिव,
शंकर में बदले
मुश्किल है ताण्डव सह पाना
इतना भी........
-डा० जगदीश व्योम
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 19 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण एवम मानव से ईश को जोड़ती अनोखी कृति,
ReplyDeleteसुंदर रचना।
ReplyDeleteसच है बहुत मुश्किल है सब कुछ सह जाना ।
ReplyDeleteयूँ तो सच के
ReplyDeleteबहुत मुखौटे
कदम-कदम पर
दिख जाते हैं
बहुत खूब