April 5, 2021

मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा


तुम दरबारों के गीत लिखो
मैं जन की पीड़ा गाऊँगा.

लड़ते-लड़ते तूफानों से
मेरे तो युग के युग बीते
वीभत्स अभावों का साया
आकर हर रोज डराता है.
मैं क्या जानूँ सोने-से दिन
क्या जानूँ चाँदी-सी रातें
जो भोग रहा हूँ रात-दिवस
मेरा तो उससे नाता है.

तुम सोने-मढ़ा अतीत लिखो
मैं अपना समय सुनाऊँगा.

जो भोगा पग-पग वही लिखा
जैसा हूँ मुझमें वही दिखा
मैं कंकड़-पत्थर-काँटों पर
हर मौसम चलने का आदी.
वातानुकूल कक्षों में शिखरों-
की प्रशस्ति के तुम गायक
है मिली हुई जन्मना तुम्हें
कुछ भी करने की आजादी.

तुम सुख-सुविधा को मीत चुनो
मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा.

आजन्म रही मेरे हिस्से
निर्मम अँधियारों की सत्ता
मुझ पर न किसी पड़ी दृष्टि
मैं अनबाँचा अनलिखा रहा.
मुस्तैद रहे हैं मेरे होंठों पर 
सदियों- सदियों ताले
स्वर अट्ठहास के गूँज उठे
जब मैंने अपना दर्द कहा.

तुम किरन-किरन को क़ैद करो
मैं सूरज नया उगाऊँगा .

-जय चक्रवर्ती
   

6 comments:

  1. आजन्म रही मेरे हिस्से
    निर्मम अँधियारों की सत्ता
    मुझ पर न किसी पड़ी दृष्टि
    मैं अनबाँचा अनलिखा रहा.
    मुस्तैद रहे हैं मेरे होंठों पर
    सदियों- सदियों ताले
    स्वर अट्ठहास के गूँज उठे
    जब मैंने अपना दर्द कहा.

    वाह👌👌👌👌👌 सुबह सुबह इतना सुंदर भावपूर्ण गीत पढ़कर आनंद आ गया। हार्दिक शुभकामनाएं कविराज🙏🙏

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  2. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    06/04/2021 मंगलवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......


    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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  3. आदरणीय सर ,
    बहुत ही सुंदर सशक्त कविता। मेरी मासी मुझे अक्सर कहतीं हैं की एक कवि का धर्म है कि वह देश की आम जनता और पीड़ित व वंचित वर्गों की पीड़ा को अपनी लेखनी से जन-जन तक पहुंचाए।
    आज आपकी रचना में उसी भाव को पढ़ कर मन आनंदित हो गया। " तुम किरण -किरण को कैद करो, मैं नया सूरज उगाऊँगा " मेरी प्रिय पंक्ति है जो हमें संघर्ष क्र सफलता पाने की प्रेरणा देती है।
    हार्दिक आभार इस सुंदर रचना के लिए।

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  4. बहुत खूबसूरत रचना

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  5. आजन्म रही मेरे हिस्से
    निर्मम अँधियारों की सत्ता
    मुझ पर न किसी पड़ी दृष्टि
    मैं अनबाँचा अनलिखा रहा.
    मुस्तैद रहे हैं मेरे होंठों पर
    सदियों- सदियों ताले
    स्वर अट्ठहास के गूँज उठे
    जब मैंने अपना दर्द कहा.
    नया सूरज उगाने का हौसला ही कुछ नई इबारत लिखवा सकता है । बहुत खूब

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  6. अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
    greetings from malaysia

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