सच लिखने से डर लगता है?
बंद करो,
ये लिखना- विखना !
कब तक गाओगे-
'मुखड़ा है
चाँद का टुकड़ा'
देखा है क्या
मुखड़े के पीछे का
दुखड़ा
दरबारों में
लोट लगाते रहना है तो-
छोड़ो ये कवि जैसा दिखना !
दुःख में, पीड़ा में,
चिन्ता में
बोलो-
कब-कब मुस्काये हो
जो औरों से कहते हो,
क्या-
खुद भी वह सब कर पाये हो
पहले तो अपने को बाँचो
फिर
दुनिया पर कविता लिखना!
पैदा करो
एक चिनगारी प्रतिरोधों की-
संवेदन की
और दहकने दो भट्ठी
पल-प्रतिपल
अपने अंतर्मन की
सीखो कविवर,
इस भट्ठी में सुबह-शाम
रोटी-सा सिंकना !
सच कहने से...
-जय चक्रवर्ती
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