नर्म तिनके ले बया फिर
स्वेटरों से घोंसले-घरबुन रही उस पेड़ पर
किरण के सूजे सम्हाले
युवतियों-सी व्यस्त बूँदें
हर डिजाइन सीखने में
और मेरी ऊर्जा के
स्रोत सारे होम होते
एक रेखा खींचने में
संगमरमर पर लिखे हैं
लेखनी के शिल्प अक्षर
लादने को भेड़ पर।
माचिसों की डिब्बियों से
खेत फैले फिर हवाएँ
ले जरीबें चक बनातीं
मात्र गीली तीलियाँ हैं
उलझनें ये कीरने पर
हाथ में ही फुरफुरातीं
मौसमों ने रख दिया है
नाप की सीमा दिखा कर
एक चाँदा मेड़ पर ।
-रामकिशोर दाहिया
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