जेठ तमाचे सावन पत्थर
मारे सिर चकराये
माघ काँप कर पगडौरे में
ठंडी रात बिताये
भूखे पेट बिहनियाँ करती
सूरज की हरवाही
हारी-थकी दुपहरी माँगे
संध्या से चरवाही
देर रात तक पाही करके
चूल्हा चने चबाये
चिंताओं से दूर झोपड़ी
देकर व्याज पसीना
वक्त महाजन मूलधनों में
जोड़े लौंद महीना
रातों को दिन गिरवी धरकर
अपने दाम चुकाये
मंगल में बसने की इच्छा
मँगलू मन से कूते
ममता के हाथों गुड़-धानी
जीवन सुख अनुभूते
हाथ नेह का फिरे पीठ पर
अंक लिए दुलराये।
-रामकिशोर दाहिया
लोक शब्दों से युक्त बहुत प्रभावशाली नवगीत है दाहिया जी का, वधाई इस अच्छे नवगीत के लिए।
ReplyDeleteबहुत अच्छा नवगीत
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