भूल चुका हर कठिन समय को
खोज रहा हूँ खोई लय कोचाह रहा कुछ और देखना
पर कुछ और देखना पड़ता
नैतिकता की अग्नि-परीक्षा
निष्ठा-धर्म शूल-सा गड़ता
चलते हुए महाभारत में
याद कर रहा हूँ संजय को
अंधभक्ति की अंध प्रतिज्ञा
अंधा युग, अंधी मर्यादा
कपट-कवच का महिमा-गायन
सच का उतरा हुआ लबादा
देख रहा हूँ मुँदे नयन से
मूल्यों के इस क्रय-विक्रय को
ढहते बरगद, उखड़े गुंबद
ध्वस्त शिखर, विपरीत हवाएँ
रथ के पहियों ने कुचली हैं
बांसुरियों की दंत-कथाएँ
हारे हुए विजेताओं में
ढूँढ़ रहा हूँ शत्रुंजय को
आपाधापी, छीन-झपट में
तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी
किन्तु मिला क्या, यह असफलता
अनचाही शैया तीरों की
धीरे-धीरे पल-पल मरते
देख रहा हूँ मृत्युंजय को
घनी धुंध में पता न चलता
कैसी, कहाँ काल की गति है
जीने को है एक मरण बस
सहने को विकलांग नियति है
सोच रहा हूँ, कैसे चीरूँ
भीतर-बाहर छाये भय को
-योगेन्द्र दत्त शर्मा
["बच रहेंगे शब्द" नवगीत संग्रह से]
No comments:
Post a Comment