February 24, 2015

कहाँ ज़िन्दगी वश में

चौदह रुपए बड़ा पाव के
चाय हो गई दस में
कहाँ ज़िन्दगी वश में !

राशनकार्ड कई रंगों के
उलझे ताने-बाने
बैठ शिखर पर तय होते हैं
गुरबत के पैमाने
देश दिखे, जैसा दिखलाएँ
आकाओं के चश्मे !

अनुदानो की सूची लम्बी
हुआ खजाना खाली
अर्थव्यवस्था के माहिर भी
बजा रहे हैं थाली
सौ दिन में सुख देने वाली
धूल खा रही कस्में !

संसद में लड़ते-भिड़ते सब
पीछे मिले हुए हैं
होंठ सभी के, जनता के
प्रश्नों पर सिले हुए हैं
नारा, वोट, चुनाव आदि सब
लोकतंत्र की रस्में !

-ओमप्रकाश तिवारी
[ खिड़कियाँ खोलो... नवगीत संग्रह से ]

5 comments:

  1. बिलकुल सही कहा आपने...बहुत सुन्दर!!

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  2. संजीव वर्मा 'सलिल'8:44 AM

    भाई ओम तिवारी जी के नवगीत पारिस्थितिक विसंगतियों और वैषम्य को शब्दित करते हैं. यह नवगीत भी युगीन सच को आइना दिखाता है.

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  3. गीत के सभी मानकों पर खरा

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  4. गीत के सभी मानकों पर खरा

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