चौदह रुपए बड़ा पाव के
चाय हो गई दस मेंकहाँ ज़िन्दगी वश में !
राशनकार्ड कई रंगों के
उलझे ताने-बाने
बैठ शिखर पर तय होते हैं
गुरबत के पैमाने
देश दिखे, जैसा दिखलाएँ
आकाओं के चश्मे !
अनुदानो की सूची लम्बी
हुआ खजाना खाली
अर्थव्यवस्था के माहिर भी
बजा रहे हैं थाली
सौ दिन में सुख देने वाली
धूल खा रही कस्में !
संसद में लड़ते-भिड़ते सब
पीछे मिले हुए हैं
होंठ सभी के, जनता के
प्रश्नों पर सिले हुए हैं
नारा, वोट, चुनाव आदि सब
लोकतंत्र की रस्में !
-ओमप्रकाश तिवारी
[ खिड़कियाँ खोलो... नवगीत संग्रह से ]
बिलकुल सही कहा आपने...बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteबहुत सटीक !
ReplyDeleteमैं भी ब्रह्माण्ड का महत्वपूर्ण अंग हूँ l
भाई ओम तिवारी जी के नवगीत पारिस्थितिक विसंगतियों और वैषम्य को शब्दित करते हैं. यह नवगीत भी युगीन सच को आइना दिखाता है.
ReplyDeleteगीत के सभी मानकों पर खरा
ReplyDeleteगीत के सभी मानकों पर खरा
ReplyDelete