आज कबूतर
दाना ढूँढ़ रहे
गये नाज के राज
कभी जब
आँगन-छत जुटते
बेगम के हाथों
इठलाकर
दाना तब चुगते
गये नवाबी ठाट
सपन से
बाहर अब आकर
एक नये जीवन का
ताना-बाना
ढूँढ़ रहे
आँगन में दीवार
छतों पर
परदे हैं लटके
पंख फुलाकर
जोड़ बनाकर
और कहाँ फुदकें
काम-अयन
वातायन त्यागे
आकर घर-बाहर
छोड़ गुटर-गूँ
नयी धुनों में
गाना ढूँढ़ रहे
बन्द घरों में
रहकर नियमित
नभ उड़ान भरते
मंत्र-श्लोक से
बँधे देव-से
मूर्ति बने रहते
मुफ़्तखोर के
तन्त्र-जाल से
निकल तनिक बाहर
अब अपना आकाश
नया पैमाना
ढूँढ़ रहे
-ओम धीरज
[ " सावन सूखे पाँव " नवगीत संग्रह से ]
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