-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु !
पूछेगा सारा गाँव, बंधु !
यह घाट वही जिस पर हँसकर
वह कभी नहाती थी धँस कर
आँखे रह जाती थीं फँस कर
कँपते थे दोनों पाँव, बंधु !
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु !
पूछेगा सारा गाँव, बंधु !
[डलमऊ का गंगा घाट जहाँ बैठकर निराला जी ने इस अमर गीत की रचना की] |
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी
फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी, सहती थी
देती थी सबके दाँव, बंधु !
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु !
पूछेगा सारा गाँव, बंधु !
-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
[डलमऊ का गंगा घाट जहाँ बैठकर निराला जी ने अपना महत्वपूर्ण लेखन किया...... महाप्राण निराला की भव्य प्रतिमा] |
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