खुल गयी नाव
घिर आयी संझा, सूरजडूबा सागर तीरे।
धुँधले पड़ते-से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मँडराने
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।
तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं,
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे।
-अज्ञेय
[ "पाँच जोड़ बाँसुरी" - सम्पादक- चन्द्रदेव सिंह, पृष्ठ-44
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