कागज का भी मन होता है
हर क्षण मन में उल्लास भरेआशा का हार पिरोता है
इसका वक्षस्थल मत चीरो
कोमल स्पर्श करो भाई
इसमें बलिदानी सोए हैं
वीरों की संचित तरुणाई
इस पर फूहड़पन मत परसो
लज्जा से नयन भिगोता है
जब मन की कुछ बातों का हो
अधरों पर लाना बहुत कठिन
जब आतुर मन तय करता हो
लम्बी रातें तारे गिन-गिन
वाणी का तब वाहक बनकर
प्रियतम का प्राण बिलोता है
परदेश गये बेटे की माँ
जब कोई ख़बर नहीं पाती
ऐसा होगा, वैसा होगा
यह सोच-सोच धड़के छाती
तब काग़ज़ उसका नाम लिखा
माँ के मन चन्दन बोता है
गीता, कुरान, गुरुग्रन्थ और
बाइबिल इसकी ही है महिमा
रसखान, बिहारी, तुलसी की
इसके कारण ही है गरिमा
जो सादर पलकों पर रखता
वह अमर जगत में होता है
काग़ज़ का भी मन होता है।
-डा० विजेन्द्र पाल शर्मा
( "कागज का भी मन होता है" गीत संग्रह से साभार )
इतनी सुंदर कविता कहीं पर भी नहीं मिली, बस आपके ब्लाग पर खोज खोज मिली। विजेंद्र पाल शर्मा की यह कविता कालजयी है।
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