आमों के शीश
मौर बाँधने लगा फागुन
शून्य की शिलाओं से
टकराकर ऊब गई,
रंगहीन चाह
नए रंगों में डूब गई
कोई मन वृंदावन
कहाँ तक
पढ़े निर्गुन
खेतों में
फिर फैली वासंती बाँहें
गोपियाँ सुगंधों की
रोक रही राहें
देखो भ्रमरावलियाँ
कौन-सी
बजाएँ धुन
बाँसों वाली छाया
देहरी बुहार गई
मुट्ठी भर धूल, हवा
कपड़ों पर मार गई
मौसम में,
अपना घर
भूलने लगे पाहुन
-डा० शिवबहादुर सिंह भदौरिया
सुंदर अभिव्यक्ति ...!!
ReplyDeleteफागुन का अलग सा वर्णन ...बहुत सुन्दर
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