मछली बोली
सुन मछुएमत फेंक रुपहला जाल
मैं पानी के हाथ बिकानी
पानी मेरी लाज कहानी
मुझे न कर निर्वसना
इन लहरों से नहीं निकाल
अंकशायिनी हूँ अथाह की
प्राण-प्रिया निर्मल प्रवाह की
मत छू मेरी देह
मुझे इस रेती पर मत डाल
मैं जो तेरे घर जाऊँगी
रस्ते ही में मर जाऊँगी
मेरी सागर-प्रीत
मुझे गागर में नहीं उछाल
मछली बोली
सुन मछुए
मत फेंक रुपहला जाल।
-डा० रवीन्द्र भ्रमर
क्या बात है वाह!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-935 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
भ्रमर जी को विनम्र श्रद्धांजलि..आपके इस प्रयास से अति सुन्दर रचना हम तक पहुंची है . इसके लिए आपका आभार..
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