महक बिखराकर
हरसिंगार झरे ।
सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।
वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की ज़द से
अब आखिर
बाहर कौन करे ।
सघन गंध
फैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे ।
-डा० जगदीश व्योम
साधु-साधु
ReplyDeleteसुंदर............
ReplyDeleteअति सुंदर..................
सादर.
बहुत सुंदर मन के भाव ...
ReplyDeleteप्रभावित करती रचना .