है फिर घटी-घटी
पल भर को तो लगा घटायें
अब कौंधी अब बरसीं
आग निगलती सुधियाँ लेकिन
फिर बूँदों को तरसीं
व्यस्त हवायें लिखा-पढ़ी में
ऋतुयें बटी-बटी
बड़ा गर्म बाजार लगे बस
औने-पौने दाम
निर्लज्जों की साँठ-गाँठ में
डूबा कुल का नाम
ऊबासाँसी लेती बेघर
पलकें हटी-हटी
खट-खट सुनते-सुनते पक गये
दरवाजों के कान
आहट, सगुनाहट सब कोरी
खाली गई जबान
रहीं ताकती दालानो को
आँखें फटी-फटी।
-निर्मल शुक्ल
बची खुची बरगद की साँसे
ReplyDeleteफिर हैं घटी घटी//
सुन्दर नवगीत...
सादर...
बहुत सुन्दर , बधाई.
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