December 2, 2011

बड़ा गर्म बाजार


बची-खुची बरगद की साँसें
है फिर घटी-घटी

पल भर को तो लगा घटायें
अब कौंधी अब बरसीं
आग निगलती सुधियाँ लेकिन
फिर बूँदों को तरसीं

व्यस्त हवायें लिखा-पढ़ी में
ऋतुयें बटी-बटी

बड़ा गर्म बाजार लगे बस
औने-पौने दाम
निर्लज्जों की साँठ-गाँठ में
डूबा कुल का नाम

ऊबासाँसी लेती बेघर
पलकें हटी-हटी

खट-खट सुनते-सुनते पक गये
दरवाजों के कान
आहट, सगुनाहट सब कोरी
खाली गई जबान

रहीं ताकती दालानो को
आँखें फटी-फटी।

-निर्मल शुक्ल

2 comments:

  1. बची खुची बरगद की साँसे
    फिर हैं घटी घटी//

    सुन्दर नवगीत...
    सादर...

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  2. बहुत सुन्दर , बधाई.

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