तुम नहीं
और अगहन की ठंडी रात।संध्या से ही सूना-सूना
मन बेहद भारी है
मुरझाया-सा जीवन शतदल
कैसी लाचारी है
है जाने कितनी दूर
सुनहरी प्रात।
खोकर सपनों का धन
आँखें बेबस बोझिल निर्धन
देख रही है भावी का पथ
भर-भर आँसू के कन
डोल रहा अंतर
पीपल का सा पात।
है दूर रोहिणी का आँचल
रोता मूक कलाधर
खोज रहा हर कोना
बिखरा जुन्हाई का सागर
किसको रे आज
बताएँ मन की बात।
-डा० महेंद्र भटनागर
No comments:
Post a Comment