मैं समय की त्रासदी का गीत हूँ।
घुट रहा है दम विषैली छाँव में
धुआँ फैला है समूचे गाँव में
सरहदों पर गीत की परछाइयाँ
मैं स्वयं से ही बहुत भयभीत हूँ।
क्यारियों में बैर के काटे हुए
दिलों के नासूर सन्नाटे हुए
लड़ रहे हैं लोग टूटी मूठ से
अधर में मैं वंचना की जीत हूँ।
काम के छोटे, बड़े हैं नाम के
दास होकर रह गए हैं दाम के
खान से पीछे पड़े हैं चाम के
मैं उन्हीं की वासनामय प्रीत हूँ।
जो मरा है, कौन चादर दे उसे
जो जिया है, कौन आदर दे उसे
मैं अकेला ही खड़ा हूँ भीड़ में
स्वयं अपना सखा-सहचर-मीत हूँ।
-डा० रवीन्द्र भ्रमर
मार्मिक और भावपूर्ण रचना.....
ReplyDeleteक्या बात है! वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeletebehtreen rachna prstuti...
ReplyDeleteबेहतरीन ब्लॉग और बहुत सुन्दर नवगीत
ReplyDeleteबहुत अच्छा नवगीत है
ReplyDeleteअत्यन्त प्रभावशाली नवगीत के लिए वधाई।
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteहमारी बधाई स्वीकारें ||
अभिव्यक्ति पसंद आयी,....! अच्छी रचना का आभार !