October 11, 2011

त्रासदी का गीत


दर्द में डूबा हुआ संगीत हूँ
मैं समय की त्रासदी का गीत हूँ।

घुट रहा है दम विषैली छाँव में
धुआँ फैला है समूचे गाँव में
सरहदों पर गीत की परछाइयाँ
मैं स्वयं से ही बहुत भयभीत हूँ।

क्यारियों में बैर के काटे हुए
दिलों के नासूर सन्नाटे हुए
लड़ रहे हैं लोग टूटी मूठ से
अधर में मैं वंचना की जीत हूँ।

काम के छोटे, बड़े हैं नाम के
दास होकर रह गए हैं दाम के
खान से पीछे पड़े हैं चाम के
मैं उन्हीं की वासनामय प्रीत हूँ।

जो मरा है, कौन चादर दे उसे
जो जिया है, कौन आदर दे उसे
मैं अकेला ही खड़ा हूँ भीड़ में
स्वयं अपना सखा-सहचर-मीत हूँ।

-डा० रवीन्द्र भ्रमर

7 comments:

  1. मार्मिक और भावपूर्ण रचना.....

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  2. क्या बात है! वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  3. behtreen rachna prstuti...

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  4. बेहतरीन ब्लॉग और बहुत सुन्दर नवगीत

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  5. बहुत अच्छा नवगीत है

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  6. अत्यन्त प्रभावशाली नवगीत के लिए वधाई।

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  7. बढ़िया प्रस्तुति |
    हमारी बधाई स्वीकारें ||
    अभिव्यक्ति पसंद आयी,....! अच्छी रचना का आभार !

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