October 21, 2011

श्वांस-श्वांस बन्दिनि हो


श्वांस-श्वांस बन्दिनि हो
कैद हो पसीना
ऐसे में जीना भी क्या जीना !

घेरे हों प्रश्न-चिह्न
आँगन, चौराहों को
दौड़ रही हो चुप्पी
फैला दो बाँहों को
कंठ-चर्म में गाँठें
बेबस नगीना
ऐसे में जीना भी... 

जहर बुझी सुइयाँ
हों बेधती शिराओं को
पत्थर-दीवारें
हों थामती हवाओं को
आत्म-बोध
अपराधी हो प्रखर कमीना
ऐसे में जीना भी... 

धूप की लहरियों को
शीतल जल कहना
गुब्बारे-सा
बढ़ता महाशून्य सहना
आँख-आँख मोती को
आँख-आँख पीना
ऐसे में जीना भी... 

-मुनीश मदिर

(मुनीश मदिर, मनीषा, 26 बी, देवनगर, नेपाल होटल के पास, मथुरा)

2 comments:

  1. वाह, बहुत सुंदर ||

    ReplyDelete
  2. bhaut hi acchi.. happy khubsurat....

    ReplyDelete