कमरों में कामरेड बैठे हैं
सड़कों पर खून बह रहा है।क्रांति तो किताबों में बंद है
खुले हैं किवाड़ इतिहासों के
नारों की फ़सल उगे होंठों पर
सौ टुकड़े होते विश्वासों के
हरे॑-भरे सपनों की कौन कहे
जंगल में गीत दह रहा है ।
लाशों को चीथ रहे कौवों की
अपनी क्या जात कहीं होती है
दिन पर दिन बढ़ते नाखूनों की
कोई तारीख नहीं होती है
सन्नाटा मौसम पर भारी है
कितना कुछ शब्द सह रहा है ।
सूरज के माथ पर पसीना है
सुबह कहीं खोई अफ़वाहों में
थर-थर-थर काँपती मुँडेरें हैं
सहमी है धूप क़त्लगाहों में
बदलेगा, यह सब कुछ बदलेगा
मूरख है, कौन कह रहा है ?
-यश मालवीय
vyom ji,
ReplyDeletesundar rachna ke liye badhai sweekaren.
मेरी १०० वीं पोस्ट , पर आप सादर आमंत्रित हैं
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ब्लॉग पर यह मेरी १००वीं प्रविष्टि है / अच्छा या बुरा , पहला शतक ! आपकी टिप्पणियों ने मेरा लगातार मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया है /अपनी अब तक की " काव्य यात्रा " पर आपसे बेबाक प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता हूँ / यदि मेरे प्रयास में कोई त्रुटियाँ हैं,तो उनसे भी अवश्य अवगत कराएं , आपका हर फैसला शिरोधार्य होगा . साभार - एस . एन . शुक्ल