घाव हुए और और गहरे ।
कैसी आपाधापी
शोर और धमाके
सूनी-सी गलियाँ हैं
भीड़ भरे नाके
कौन सुने किसकी, सब गूँगे बहरे ।
चैन कहाँ किसको
भीतर घबराहट
डरे-डरे अनायास
होती जब आहट
सूनी सड़कों पर जगह-जगह पहरे ।
हर चेहरे पर देखो
पसरा है तनाव
भीतर ही भीतर है
कितना अलगाव
कब होंगे ये दिन सुनहरे ।
-मदनमोहन उपेन्द्र
भावपूर्ण रचना....
ReplyDelete