September 16, 2011

नावें पत्थर की

यात्राएँ गंगा सागर की 
नावें पत्थर की
ऐसी बदल गयी है आवो-हवा 
शहर भर की ।

चोंच पसारे चिड़िया बीने
आँगन-आँगन दाना
स्वाती भर सीपियाँ देखतीं
बादल आना-जाना
सूरज छूने की इच्छाएँ, 
कैदें हैं घर की
यात्राएँ गंगा सागर की 
नावें पत्थर की ।

अक्षर-अक्षर स्याही आँजे
रंग पुते -से चेहरे
हमें मिली हैं आँखें
सुनने वाले सब बहरे
बाहर से मुस्काने लगतीं 
चोटें भीतर की
यात्राएँ गंगा सागर की 
नावें पत्थर की ।

खुले आम चुन दिये गये हैं
हम पूरे के पूरे
कोई रहे मदारी हमको
रहना सिर्फ जमूरे
हम झूठे ही मरे 
लाख क़समें खाईं सर की
यात्राएँ गंगा सागर की 
नावें पत्थर की ।

-विजय किशोर मानव

5 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना ...आभार बांटने के लिए

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  2. टिप्पणी के लिये आभार

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  3. behtreen bhaavabhivaykti....

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  4. बहुत अच्छा और सामयिक नवगीत के लिये वधाई।

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  5. बहुत अच्छा और सामयिक नवगीत के लिये वधाई।

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