रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकरआँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
-कैलाश गौतम
कैलाश गौतम के गीत और नवगीत गाँव की मिट्टी के साथ ऐसे घुलेमिले हैं जिनमें पूरा का पूरा गाँव ही दिख जाता है, गाँव के गाँवपन को बदरंग होते देखने की पीड़ा उनके इस नवगीत में देखते ही बनती है। यदि आप इससे सहमत या असहमत हैं तो कृपया टिप्पणी लिखकर अपने अनुभव सांझा करें।
ReplyDeleteवाह , बहुत ही सुन्दर गीत हैं ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...वाह!
ReplyDeleteaapne sab kuchh bol diya ...tarif ke shabd chhodkar aur kuchh bachha nahi...waaaaaaaaaaaaah bahuuuuuuuuut achchha laga
ReplyDeleteगांव गया था .....
ReplyDeleteक्या टिप्पणी करूं गीत पर ..... नि:शब्द हूं... गांववाला हूं ना ..
भागा तो नही हूं बस रोजी रोटी के जुगत में विगत ३४ वषों से कंक्रीट के जंगलों में भटकते हुये जब भी शांति पाने की तलाश में पुरानी जड़ों को खाद पानी देने के नाम पर वापस जाता हूं ..
तो
जिस जगह की प्रकृति मेरी मीत थी
खो गये सब गांव .....
की पीड़ा लेकर आता हूं..
इस गीत से आपने तो मेरे हृदय की संपूर्ण फांस निकाल दी । - आभार कहूं अथवा प्रणाम सब बहुत छोटा है
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ReplyDeleteइस पृष्ठ पर अक्सर आकर नवगीत का आश्वादन नयनों की डोरी से हृदय तक करती हूँ ...आदरणीय कैलाश जी जैसे रचनाकार सदैव हमारे बीच रहते हैं ..अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से ...इस नवगीत के आधार पर ..इसके इर्दगिर्द घूमती हुई न जाने कितने लोगों की रचनाएं सुन चुकी हूँ .... पर जड़ तो जड़ ही होती है ....अद्भुत !!
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