गीत लेकर आ गए हैं
हम तुम्हारी सभ्यता परसंस्कृति से छा गए हैं।
ये सुबह-शामें हमारी
और अनदेखी तुम्हारी
अब समझ आने लगी है
नींद की सारी खुमारी
गीत लेकर आ गए हैं
रात भी अब क्या करेगी
जागने को भा गए हैं ।
धूप में कालाबजारी
बहुत देखी सेंधमारी
अब नकद भूगतान लेगी
ज़िंदगी ही हर उधारी
गीत लेकर आ गए है
अब नहीं वो गीत गाना
जो गवैये गा गए हैं।
लोग ज्यों हारे जुआरी
हो चुकी मर्दुमशुमारी
सुख न कोई मोल पाए
खर्च करके रेजगारी
गीत लेकर आ गए हैं
अब किले उनके ढहेंगे
जो सितम-सा ढा गए हैं।
आड़ में चोरी चकारी
शाह से हो चुकी यारी
अब मिलेगी ख़ाक में
ओढ़ी हुई सी ख़ाकसारी
गीत लेकर आ गए हैं
हम कि अपने को अचानक
भीड़ ही में पा गए हैं।
-यश मालवीय
( सम्यक् पत्रिका के नवगीत विशेषांक से साभार )
भाई डॉ० व्योम जी यश मालवीय हमारे समय के एक बड़े नवगीत कवि है उनकी काव्य यात्रा सदवाहिनी नदी के सामान है आपको और यश जी को बधाई
ReplyDeleteभाई डॉ० व्योम जी यश मालवीय हमारे समय के एक बड़े नवगीत कवि है उनकी काव्य यात्रा सदवाहिनी नदी के सामान है आपको और यश जी को बधाई
ReplyDeleteसुन्दर रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति , बधाई
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .
अति शीघ्र प्रतिक्रिया लिखने के लिये तुषार जी का आभार।
ReplyDeleteयश मालवीय के इस बहुत प्यारे और सकारात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत नवगीत के लिये हार्दिक वधाई।
ReplyDeleteकमलेश भट्ट कमल
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteइस सुन्दर गीत के लिए आभार ....
ReplyDeleteबहुत अच्छा और सामयिक नवगीत के लिये वधाई।
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