मन होता है पारा
ऐसे देखा नहीं करो
जाने तुमने क्या कर डाला
उलट-पुलट मौसम
कभी घाव ज्यादा दुखता है
और कभी मरहम
जहाँ-जहाँ ज्यादा दुखता है
छूकर वहीं दुबारा
ऐसे देखा नहीं करो
यह मुसकान तुम्हारी
डूबी हुई शरारत में
उलझा-उलझा खत हो जैसे
साफ इबारत में
रह-रह कर दहकेगा
प्यासे होठों पर अंगारा
ऐसे देखा नहीं करो
कौन बचाकर आँख
सुबह की नींद उघार गया
बूढे सूरज पर पीछे से
सीटी मार गया
हम पर शक पहले से है
तुम करके और इशारा
ऐसे देखा नहीं करो
होना-जाना क्या है
जैसा कल था वैसा कल
मेरे सन्नाटे में बस
सूनेपन की हलचल
अँधियारे की नेमप्लेट पर
लिख-लिख कर उजियारा
ऐसे देखा नहीं करो
-रामानंद दोषी
bhaut hi sundar rachna...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति....
ReplyDeleteसुन्दर रचना , बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
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