July 31, 2011

पिता सरीखे गाँव

तुम भी कितने बदल गये हो
पिता सरीखे गाँव

परम्पराओं का बरगद-सा
कटा हुआ यह तन
बो देता है रोम-रोम में
बेचैनी सिहरन
तभी तुम्हारी ओर उठे ये
ठिठके रहते पाँव


जिसकी वत्सलता में डूबे
कभी सभी संत्रास
पच्छिम वाले उस पोखर की
सड़ती है अब लाश
किसमें छोड़ूँ
सपनो वाली कागज की वह नाव

इस नक्शे से मिटा दिया है
किसने मेरा घर
बेखटके क्यों घूम रहा है
एक बनैला डर
मन्दिर वाले पीपल की भी
घायल है अब छाँव
तुम भी कितने बदल गये हो
पिता सरीखे गाँव

3 comments:

  1. बहुत खूबसूरत , बहुत सुन्दर

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  2. मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,आपकी कलम निरंतर सार्थक सृजन में लगी रहे .
    एस .एन. शुक्ल

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  3. बहुत सुन्दर नवगीत है।

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