August 11, 2011

न जाने क्या होगा


सिमट गई
सूरज के रिश्तेदारों तक ही धूप
न जाने क्या होगा 

घर में लगे उकसने कांटे
कौन किसी का क्रंदन बांटे
अंधियारा है गली गली
गुमनाम हो गई धूप
न जाने क्या होगा

काल चक्र रट रहा ककहरा
गूंगा वाचक, श्रोता बहरा
तौल रहे तुम, बैठ-
तराजू से दुपहर की धूप
न जाने क्या होगा

कंपित सागर डरी दिशाएं
भटकी भटकी सी प्रतिभाएं
चली ओढ़ कर अंधकार की
अजब ओढ़नी धूप,
न जाने क्या होगा

घर हैं अपने चील घोंसले
घायल गीत जनम कैसे लें
जीवन की अभिशप्त प्यास
भड़का कर चल दी धूप
न जाने क्या होगा

सहमी सहमी नदी धार है
आंसू टपकाती बहार है
भटके को पथ दिखलाकर,
 खुद-भटक गई है धूप
न जाने क्या होगा

समृतिमय हर रोम रोम है
एक उपेक्षित शेष व्योम है
क्षितिज अंगुलियों में फंसकर फिर
फिसल गई है धूप
न जाने क्या होगा

बलिदानी रोते हैं जब जब
देख देख अरमानों के शव
मरघट की वादियां
खोजने लगीं
सुबह की धूप
न जाने क्या होगा

-डा० जगदीश व्योम

12 comments:

  1. न जाने क्या होगा? इस संकमण काल की अद्भूत व्याख्या...बहुत-बहुत आभार

    ReplyDelete
  2. न जाने क्या होगा? इस संकमण काल की अद्भूत व्याख्या...बहुत-बहुत आभार

    ReplyDelete
  3. चन्द्र भूषण मिश्र "गाफ़िल" जी त्वरित और गम्भीरता पूर्वक टिप्पणी करने के लिये आपका आभार।

    ReplyDelete
  4. सुन्दर रचना ,सार्थक प्रस्तुति

    ReplyDelete
  5. आपका ब्लॉग शानदार नवगीतों का संग्रह है या कहें कि एक पाठशाला है

    ReplyDelete
  6. व्योम जी नमस्कार्। वर्तमान परिस्थितियॉ की सुन्दर व्याख्या। जय हिन्द्।

    ReplyDelete
  7. व्योम जी नमस्कार। वर्तमान परिस्थितियों पर सार्थक प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  8. शुक्ला जी, वंदना जी, सुमन जी ! टिप्पणी के लिये आभार।
    डा० व्योम

    ReplyDelete
  9. बहुत अच्छा और सामयिक नवगीत के लिये वधाई।

    ReplyDelete
  10. व्योम जी नमस्कार। वर्तमान स्रकंमण कालीन व्यवस्था की अच्छी व्याख्या है इस नवगीत में।

    ReplyDelete
  11. सुमन दुबे जी ! धन्यवाद टिप्पणी कर लिए।

    ReplyDelete
  12. "सिमट गई सूरज के ही रिश्तेदारों तक धूप" बहुत सटीक व्यंग्य है आज की व्यवस्था पर। मेरी बधाई स्वीकार करें व्योम जी, इतना अच्छा नवगीत देने के लिए।

    ReplyDelete