कुछ घर का है, कुछ बाहर का
हम देश-देश घूमे,
आँखों में लेकर भार समंदर का।
स्वप्नों में अर्द्धकंदराएँ
स्वप्नों में अर्द्धकंदराएँ
जागरण लिए खाली बाती
मन में आकाश रामगिरि का,
मन में आकाश रामगिरि का,
तन की यात्रा सिंहलद्वीपी
हम बोलेंगे पाषाणों से,
हम बोलेंगे पाषाणों से,
है यह अभिशाप जन्म भर का।
अपना भी दर्द निराला है
अपना भी दर्द निराला है
कुछ घर का है, कुछ बाहर का ।।
मिल बैठे आम तले कर ली,
मिल बैठे आम तले कर ली,
शाकुन्तल क्षण की अगवानी
बाहों के घेरे से बढ़कर
बाहों के घेरे से बढ़कर
होगी क्या और राजधानी
कस्तूरी मन मानता रहा,
कस्तूरी मन मानता रहा,
बन्धन बस ढाई आखर का।
अपना भी दर्द निराला है
अपना भी दर्द निराला है
कुछ घर का है, कुछ बाहर का ।।
हमने महकाये साँसों से
हमने महकाये साँसों से
सूने खंडहर वे राजमहल
अंगारों में उगते गुलाब,
अंगारों में उगते गुलाब,
पहरे के पीछे खिले कमल
हम धनुष तोड़ते फिरे सदा,
हम धनुष तोड़ते फिरे सदा,
लेकर हर भरम स्वयंवर का।
अपना भी दर्द निराला है
अपना भी दर्द निराला है
कुछ घर का है, कुछ बाहर का ।।
-सोम ठाकुर
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