लाज भरे नयनों में
दूर‚ साँझ झाँक रही-चलो कहीं मिलें-जुलें‚
श्वांस के प्रबंधों में।
सोने-सा रेत उगा‚
धरती पर
लगता है चैत जगा
झूम रहे उपवन-तरु
सिन्दूर लगा-लगा
अनुमानित भावों की‚
अन्तर्ध्वनि गूँज रही
चलो कहीं लग जाएँ
निश्चय के धंधों में।
क्षण अतीत बीत गए‚
आज स्वतः
स्वप्न-घटक रीत ग्ए
सत्य के पखेरू‚ प्रिय
प्रत्याशित जीत गए
आज तलक‚
अपनापन‚ बहुत-बहुत दूर रहा‚
चलो कहीं
बाँधें मन‚ मादक अनुबंधों में।
उर-उपवन हुए हरे‚
झूम रहे
आगत पल राग भरे
बैठ गए पाँखी-श्वर‚
गालों पर हाथ धरे
टूट गया
अनचाहा अलगाव-सन्धि-बाँध‚
चलो‚ कहीं तैरें हम‚
आग्रह सौगन्धों में।
-मुनीश मदिर
No comments:
Post a Comment