एक अदद
शब्द के लिए
चलिए,
बाजार तक चलें
मौसम का
हाल पूछने -
ताज़ा अख़बार तक चलें ।
ज़िस्म मेमने
का क्या हुआ
बेतुका सवाल छोड़िए
स्वाद के नशे में घूमते
भेड़िए को हाथ जोड़िए
ज़ुर्म की शिनाख़्त के लिए
आला दरबार तक चलें ।
ऐसी आंँधी गुज़र गई
ज़हर हुए, वन, नदी, पहाड़
सगे-सगे लगे हैं हमें
डोलते कबंध, कटे ताड़
लदे हरसिंगार के लिए
छपे इश्तेहार तक चलें।
जोंक जो हुई ये ज़िन्दगी
उम्र है ढहा हुआ किला
तेंदुए मिले कभी-कभी
आदमी कहीं नहीं मिला
आइए, तलाश के लिए
इसी यादगार तक चलें।
-उमाशंकर तिवारी
वाह! बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत
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