बड़ी फजीहत झेल चुके, जग की नौटंकी में
चलो रहें, कुछ दिन सुकून से, बाराबंकी में
गवरमेन्ट स्कूल चलेंगे, बैठेंगे कुछ पल
जिस गुरुकुल में बीता, आज बनाने वाला कल
गलियों में, गुल्ली, कंचों से, चोर-सिपइया से
लौटाएँगे बचपन फिर, मिल चप्पू भइया से
मुन्नू की गुड़पट्टी, मक्खन, मुन्ना के खस्ते,
यादों में अम्मा-बाबू की, इनकी उनकी में
चलो रहें कुछ दिन...
सँकरी बस्ती, शहर पुराना, मैला मैला सा
कस्बे से बन रहा नगर, अब फैला फैला सा
गली मोहल्ले वाली आपसदारी टूट रही
कोलाहल है, भीड़ बढ़ी मन किन्तु अकेला सा
घन्टाघर, नागेसर मंदिर और धनोखर की
चहल-पहल की शामों में, आरती-भजन की में
चलो रहें कुछ दिन...
थे 'खुमार' पहचान, शायरी की ऊँचाई की
सागर की गजलें, नज्में शम्सी मीनाई की
कल्पनाथ के गीत, जादुई हाकी 'बाबू' की
आएगी ही याद, रफी अहमद किदवाई की
पारिजात को छुएँ, चढ़ाएँ चादर देवा में,
जानें, क्या था खास, कृष्णचन्दर के डंकी में
चलो, रहें कुछ दिन सुकून से बाराबंकी मे।
-डॉ. विनोद निगम
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