मूँद कर आँखें
भरोसा था किया,
न बहुरे लोक के दिन
खेत चलकर आ गये
चकरोड पर
और फसलों ने रखा
व्रत निर्जला,
रेंगती मुन्सिफ़ के जूँ
न कान पर
दाँव बदले चाँद,
ज्यों षोडश कला
न्याय पैंताने डुलाता
है चँवर,
न टरते शोक के दिन
न बहुरे...
आवरण में नित
ककहरे झूठ के,
हैं परोसे तंत्र ने
जन के लिए
चेतना के पाँव
कीले हैं गये
सत्य का हर स्वर
विलोपन के लिए
रोकनी हैं मिल
दमन की पारियाँ,
न हैं अब धोक के दिन
न बहुरे...
हर क़लम का जो,
असल दायित्व है
धार पर चल
चेतना का स्वर भरे
क्यों कहेगी बात
न ईमान की,
डर बिगाड़े का क़लम
कब मन धरे
जो जबर बन छल रहे
लो, आ गये
उन्हीं की टोक के दिन
न बहुरे...
-अनामिका सिंह
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