सारी रात झरे आँगन में
पारिजात के फूलमहके प्राण-प्रणव, जागे हैं
अनगिन सुप्त शिवाले
कई अबूझी रही सुरंगें
फैले भोर उजाले
दीप-दान करती सुहागिनें
द्वार नदी के कूल
वन-प्रांतर में मृग-शावक-दल
भरने लगे कुलाँचें
बिना मेघ, नभ के जादू से
मन-मयूर भी नाचे
झूम-झूम कर पेड़ों ने, है
झाडी़ लिपटी धूल
ले सुदूर से आये पाखी
मनभावन संदेशे
देह-देह झंकृत वीणा-सी
पुलकन रेशे-रेशे
दूब गलीचे बिछे, हटे हैं
यात्रा-पथ के शूल
-शशिकांत गीते
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२५-०७ -२०२२ ) को 'झूठी है पर सच दिखती है काया'(चर्चा-अंक ४५०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
परिजात के फूल ,सुंदर फूल सुंदर रचना
ReplyDeleteसुंदर गेय रचना, कोमल सुंदर भाव।👌
ReplyDeleteकोमल भावों वाला सुंदर नवगीत।
ReplyDeleteजी उम्दा रचना ।
ReplyDeleteगीते जी के अनूठे गीत अत्यंत मीठे hai
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना । हार्दिक बधाई । रेणु चन्द्रा
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