मेरी कोशिश है
कि नदी का बहना मुझमें होतट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तने हों
मीड़-मूर्च्छनाओं का
उठना-गिरना मुझ में हो
जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये ख़ाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी
मच्छ, मगर, घड़ियाल
सभी का रहना मुझमें हो
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें
ले जायें पानी ऊपर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझ में हो
-शिवबहादुर सिंह भदौरिया
तट से सने कछार घने हों
ReplyDeleteजगह-जगह पर घाट बने हों
अति सुंदर
बहुत सुंदर गीत
ReplyDeleteनदी का बहना मुझ में हो
मैं न रुकूं संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
बहुत बहुत बधाई