उतरी, चढ़ी
रात की दारू
उठ बैठा
मुँह खोल रहा है
राधे-राधे बोल रहा है।
कहता है जी
गौ दर्शन से
सारे काज सम्हर जाते हैं
कोष पाप का
खाली होता
मंगल के अवसर आते हैं।
लगा ठेलने
केवल अपनी
चिंतन सारा गोल रहा है
राधे-राधे बोल रहा है।
लूट-पाट की
बना योजना
वंशी वाले की जय बोले
धीरे-धीरे
दाँव-पेंच की
खुद ही अपनी गुत्थी खोले
ढोंग-फरेबी,
जीवन-रस में
कालकूट ही घोल रहा है
राधे - राधे बोल रहा है।
लाज रखेगा
डमरू वाला
अपनी नैया पार करेगा
जो चलता है
चले हमेशा
वह खाली भंडार भरेगा
हर-हर गंगे
बोल-बोलकर
ज़बरन पानी ढोल रहा है
राधे - राधे बोल रहा है।
प्रथम लक्ष्मी
मध्य शारदा
और मूल में है गोविंदा
करतल दर्शन
करता उठकर
खाने को है मुर्गा ज़िन्दा
खुलकर पूरा
भीतर-भीतर
बाहर हमें टटोल रहा है
राधे- राधे बोल रहा है।
-मनोज जैन मधुर
आदरणीय डॉ जगदीश व्योम जी आपका अत्यंत आभार
ReplyDeleteमेरा स्वयं का इस ब्लॉग में प्रकाशित होने का सपना आज पूरा हुआ। नवगीत को केन्द्र में रख कर इस ब्लॉग में आपके माध्यम से बड़ा काम हो रहा है।एतदर्थ आपको कोटिशः बधाइयाँ।