April 9, 2019

महानगर

अपने में ही उलझा-सहमा दिखता महानगर
जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर

सड़कें कम पड़ गईं गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं
महाजाल बुन रही मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं
भाग्यवान ही पूरा करते जोखिम भरा सफ़र
अपने में ही उलझा-सहमा ..........

इतने कुनबे बढ़े, कि टिड्डी-दल भी हार गये
जो दबंग, परती-नजूल की धरती मार गये
कुछ गुटखों के पाउच जैसे बिखरे इधर-उधर
अपने में ही उलझा-सहमा ..........

कूड़ा-कचरा बढ़ने की अपनी मजबूरी है
श्वान, सुअर, कौवों की रहना बहुत ज़रूरी है
पैकेट, पॉलीथीन चबाकर गाय मरे अक्सर
अपने में ही उलझा-सहमा ..........

आपाधापी मची हुई, आपस में तनातनी
राहगीर की राह देखती प्रायः राहजनी
किसका, क्या लुट गया, सवेरे आती रोज़ ख़बर
अपने में ही उलझा-सहमा ..........

पारदर्शिता ख़ातिर कपड़े और महीन हुए
बूढ़ी नज़रों तक के सपने फिर रंगीन हुए
विज्ञापित दृश्यों ने भी तो बोया खूब ज़ह
अपने में ही उलझा-सहमा ..........

-शिवभजन कमलेश

1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 09/04/2019 की बुलेटिन, " लड़ाई - झगड़े के देसी तौर तरीक़े - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete