September 9, 2018

घर रहेंगे

घर रहेंगे
हमीं उनमें रह न पायेंगे
सत्य होगा
हम अचानक बीत जायेंगे
अनर्गल ज़िन्दगी ढोते
किसी दिन हम
एक आशय तक पहुँच
सहसा बहुत थक जायेंगे

मृत्यु होगी खड़ी
सम्मुख राह रोके
हम जगेंगे
यह विवधता स्वप्न खो के
और चलते भीड़ में
कन्धे रगड़ कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं
सदियों अलग हो के

प्रकृति औ पाखण्ड के
ये घने लिपटे
बँटे, ऐंठे तार
जिन से कहीं गहरा
कहीं सच्चा
मैं समझता प्यार
मेरी अमरता की
नहीं देंगे ये दुहाई
छीन लेगा इन्हें
हमसे देह-सा संसार

राख-सी साँझ
बुझे दिन की घिर जायेगी
वही रोज संसृति का
अपव्यय दुहरायेगी

-कुँवर नारायण
(तीसरा सप्तक से)

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