August 20, 2018

मौसम की दिन-दूनी

मौसम की
दिन-दूनी
भीषण तैयारी है
अब सूख चुके हैं पुष्प
वृंत की बारी है

पत्तों के झरने का था
सदा समय निश्चित
अब असमय ही पतझार
पाँव फैलाता है
सर्जन करने में तो कुछ
मेहनत लगती है
पर ध्वंस मचाने में
किसका क्या जाता है
तटबन्ध सभी
टूटे-बिखरे-से जाते हैं
रसधारा को भी
लगी ज़रा बीमारी है

शुद्धता आज अपने दिन
गिन गिन काट रही
यह समय मिलावट का ही तो
ब्यौहारी है

संकर पौधों की
संकर बीजों की खेती
ढक रही प्रतिष्ठा
अब प्रामाणिक बीजों की
जीवन जीने के भी
निश्चित फॉर्मूले हैं
आवश्यकता क्या
दुनिया-भर की चीज़ों की
लेते जमुहाई नियम-कायदे
बरसों से
अब तौर-तरीकों की ज़्यादा
बलिहारी है

...
-पंकज परिमल

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