घर न रह गए
अब, घर जैसे
जीवन के हरियालेपन पर
उग आए हों
बंजर जैसे ।
रिश्तों की
कोमल रचनाएँ
हमको अधिक
उदास बनाएँ
दादी वाली
किस्सागोई
शापग्रस्त है
पत्थर जैसे ।
बाहर हँसते
भीतर रोते
नींद उचटती
सोते-सोते
शब्द बने परिवार
टूटकर
बिखर रहे हैं
अक्षर जैसे ।
-माहेश्वर तिवारी
अब, घर जैसे
जीवन के हरियालेपन पर
उग आए हों
बंजर जैसे ।
रिश्तों की
कोमल रचनाएँ
हमको अधिक
उदास बनाएँ
दादी वाली
किस्सागोई
शापग्रस्त है
पत्थर जैसे ।
बाहर हँसते
भीतर रोते
नींद उचटती
सोते-सोते
शब्द बने परिवार
टूटकर
बिखर रहे हैं
अक्षर जैसे ।
-माहेश्वर तिवारी
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