July 1, 2018

घर जैसे

घर न रह गए
अब, घर जैसे
जीवन के हरियालेपन पर
उग आए हों
बंजर जैसे ।

रिश्तों की
कोमल रचनाएँ
हमको अधिक
उदास बनाएँ

दादी वाली
किस्सागोई
शापग्रस्त है
पत्थर जैसे ।

बाहर हँसते
भीतर रोते
नींद उचटती
सोते-सोते

शब्द बने परिवार
टूटकर
बिखर रहे हैं
अक्षर जैसे ।

-माहेश्वर तिवारी

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