उठ रहे दंगे-धुएँ हैं
नून-रोटी साग पर
हो गया
चलना जरुरी
आग फैली आग पर
पीर की अनुभूतियाँ भी
शब्द पाकर बोलती हैं
खीर टेढ़ी हो
भले, पर तह
परत को खोलती हैं
तिलमिलाये भाव लेकर
रागिनी है राग पर
रोटियाँ, घर, द्वार, कपड़े
दाँव में खुद को लगाकर
फिर मुसीबत
झेलने को
पग धरे आगे बढाकर
मंत्र जागे पढ़ रहा
मुस्कान लीले नाग पर
-रामकिशोर दाहिया
नून-रोटी साग पर
हो गया
चलना जरुरी
आग फैली आग पर
पीर की अनुभूतियाँ भी
शब्द पाकर बोलती हैं
खीर टेढ़ी हो
भले, पर तह
परत को खोलती हैं
तिलमिलाये भाव लेकर
रागिनी है राग पर
रोटियाँ, घर, द्वार, कपड़े
दाँव में खुद को लगाकर
फिर मुसीबत
झेलने को
पग धरे आगे बढाकर
मंत्र जागे पढ़ रहा
मुस्कान लीले नाग पर
-रामकिशोर दाहिया
ब्लॉग बुलेटिन की १४०० वीं बुलेटिन, " ऑल द बेस्ट - १४००वीं ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत .उपमान नए हैं .गीत में ताजगी है .
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