आँगन मत झाँकना
दानों का हो गया अकाल
धूप के लिबासों में
झुलस रही छाँव
सूरज की हठधर्मी
ताप रहा गाँव
ओ चिड़िया
दिया नहीं बालना
बेच रहे रोशनी दलाल।
मेड़ के मचानों पर
ठिठुरती सदी
व्यवस्थाओं की मारी
सूखती नदी
ओ चिड़िया
तटों को न लाँघना
धार खड़े करेगी सवाल।
अपनेपन का जंगल
रिश्तों के ठूँठ
अपने अपनों पर ही
चला रहे मूँठ
ओ चिड़िया
सिर जरा सँभालना
लोग रहे पगड़ियाँ उछाल।
-जयप्रकाश श्रीवास्तव
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